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________________ १३ कोशकारकी व्यापक मनोवृत्ति ४ कोशकार धनपालने प्रथम गाथा में (पृ. १) नाभिसंभवं शब्दसे जैन तीर्थंकर श्री वृषभदेवका वा ऋषभदेवका जो नाभिराजा के पुत्र थे- स्मरण किया है तथा पुरुषोत्तम नाभिजन्मा ब्रह्माका भी स्मरण किया है. कोशग्रंथ सर्व व्यापक है, इसको सब कोई पढते हैं अतः इस सर्व व्यापी दृष्टि को लेकर जैनधर्मानुयायी होने पर भी कोशकारने दोनों देवोंका जो समादर भावसे स्मरण किया है वह सर्वथा समुचित ही है. और साथमें पुरिसुत्तम ( पुरुषोत्तम) शब्द से श्रीकृष्ण भगवानका स्मरण करना भी चतुर कोशकार नहीं चुके हैं. यही तो इनकी विशाल मनोवृत्तिका द्योतक है. अर्थात् प्रथम पद्य मंगलरूप है. अंतके २७६ से २७९ तक के पद्योंमें ग्रंथकारने अपना समय, अपना नाम तथा यह कोश किसके लिए बनाया है इत्यादिका सूचन किया है. कोशमें सब मिलकर शब्दपर्यायसूचक २७५ पथ हैं. क्षमाप्रार्थना ५ हम टिप्पण में अर्थ बताया है और अकारादि क्रमयुक्त शब्दकोशमें भी अर्थ बताया है. इसमें कहीं कहीं कोई विसंवाद भी हो गया है तथा किसी प्रकार की हिन्दी भाषा की तथा अन्य भूलें रह गई हों तो उससे हमारे हंससमान मनवाले विद्यार्थी गणको व सब जिज्ञासुओं को थोडी बहुत तकलीफ जरूर होगी परंतु " सहभूर्भ्रान्तिर्दुर्वारा" न्याय से ऐसा होजाना अनिवार्य सा है, तो इस तकलीफ को वे सहन करनेकी जरूर कृपा करें और जरूरत लगे तो खुलासे के लिए संपादकको सूचित करने की भी कृपा करें. नम्र बेचरदास दोशी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001708
Book TitlePaia Lacchinammala
Original Sutra AuthorDhanpal Mahakavi
AuthorBechardas Doshi
PublisherR C H Barad & Co Mumbai
Publication Year1960
Total Pages204
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Dictionary
File Size9 MB
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