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________________ IV सादृश्यमूलक उपमा अलंकार में गुण-क्रियादि के साम्य के कारण एक वस्तु की तुलना अन्य वस्तु के साथ की जाती है । यह साम्य दो पदार्थों में सर्वात्मना हो, यह आवश्यक नहीं। अलंकारदर्पणकार की दृष्टि में देश, काल, क्रिया एवं स्वरूपादि के कारण भिन्नता होने पर भी उपमेयोपमान में अल्पसाम्य के कारण भी उपमा होती है। (गाथा - ११ ) अलंकारदर्पणकार का यह लक्षण भामह के लक्षण (काव्यालंकार, २.३०) से मिलता जुलता है। दण्डी ने उपमावाचक शब्दों का विस्तृत विवरण दिया है, जो यहाँ नहीं मिलता। उपमा के दोषों का भी विवेचन यहाँ नहीं हुआ है। हां, भेदों का विवेचन अवश्य हुआ है। यहाँ उपमा के सत्रह भेद गिनाये गए हैं, जबकि दण्डी ने ३५, विश्वनाथ ने २७ और जगन्नाथ ने १२५ की संख्या प्रस्तुत की है। अलंकारदर्पणकार के भेदों में प्रतिवस्तूपमा भामह (काव्यलंकार, २.३७. ३८) और दण्डी (काव्यादर्श, २.१४५ १) के उपमा भेदों में दिखाई देती है। भामह ही वस्तुतः इसके उद्भावक हैं। दण्डी ने उन्हीं का अनुकरण किया है। उद्भट इसे स्वतन्त्र अलंकार के रूप में प्रस्थापित करते हैं (काव्यालंकारसार-संग्रह, १.२२)। मम्मट ने भी इसका समर्थन किया है । रुय्यक, जयदेव, विद्याधर, विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा अप्पयदीक्षित ने मम्मट का ही अनुकरण किया है। भोज ने इसे प्रतिवस्तूक्ति कहा है और उसे साम्यालंकार का एक भेद माना है। उपमा और प्रतिवस्तूपमा में अन्तर यह है कि उपमा में साधारण धर्म का कथन एक बार होता है, जबकि प्रतिवस्तूपमा में दो बार। उपमा में पृथक्-पृथक् शब्दों द्वारा साधारण धर्म का कथन नहीं होता, पर प्रतिवस्तूपमा में होता है । उपमा में एक वाक्य होता है और वाचक पदों द्वारा सादृश्य-कथन होता है जबकि प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्य होते हैं और इवादि पदों का प्रयोग नहीं होता। इसी तरह प्रतिवस्तूपमा में साम्य की प्रतीति वस्तुप्रतिवस्तुभाव के द्वारा होती है जबकि निदर्शना में वह बिम्बप्रतिबिम्बभाव के द्वारा होती है। अलंकारदर्पणकार के गुणकलिता और असमा भेद नये लगते हैं। असमा उपमा अलंकार अवश्य असम अलंकार से मिलता-जुलता है जहाँ उपमान का अभाव या विरह रहता है और इसमें अनन्वय वाच्य रहता है ( अलंकार रत्नाकर पृ० ११) । अनन्वयालंकार से इसमें साधारण-सा भेद है । प्रस्तुत वस्तु के धर्म की प्राप्ति अन्यत्र दोनों में नहीं होती पर असमालंकार में यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि इस वस्तु के समान अन्य कोई वस्तु नहीं। अनन्वय में उपमानान्तरव्यवच्छेद की प्रतीति भर होती है। अलंकारदर्पणकार ने न असम अलंकार माना है और न अनन्वय । असम का विकास अनन्वय से ही हुआ है। अनन्वय की स्थापना सर्वप्रथम भामह ने की है । दण्डी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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