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________________ V भोज और हेमचन्द ने इसे स्वतन्त्र अलंकार न मानकर उपमा का ही भेद स्वीकार किया है । मम्मट, रुय्यक आदि ने आगे उसी को व्यवस्थित किया है। अलंकारदर्पण में इन दोनों अलकारों को उपमा में सम्मिलित कर दिया गया है। मालोपमा सादृश्यमूलक अलंकार है । इसे सर्वप्रथम रुद्रट ने स्वतन्त्र अलंकार माना जिसका विवेचन भोज, मम्मट, जयदेव और विश्वनाथ ने किया । 'भोज इसे प्रपंचोपमा कहते हैं। मम्मट और जयदेव ने इसे उपमा के ही भेद के रूप में स्वीकारा है। अलंकारदर्पण में भी इसे उपमा के भेद के रूप में प्रस्तुत किया गया है। रीतिकाल में इसके भेद - प्रभेदों की भी चर्चा हुई। यहाँ गुणसाम्य और क्रियासाम्य की तरह शब्दसाम्य को भी उपमा का प्रायोजक माना गया है। अलंकारदर्पणकार ने विगुणरूपोपमा नामक एक नया उपमा भेद दिया है। संपूर्णा और पूर्णोपमा समानार्थक है। गूढोपमा भी एक नया भेद ही लगता है। गूढोक्ति को अर्थालंकार के रूप में अप्पयदीक्षित ने प्रस्तुत किया और उसे अप्रस्तुतप्रशंसा तथा श्लेष से पृथक् माना। गूढोत्तर, गौणी और गोणीलक्षणा का भी उल्लेख हुआ पर गूढोपमा भेद अन्यत्र नहीं मिला। अलंकारदर्पणकार का श्रृंखलोपमा रुद्रट का मालोपमा ही है। दण्डी ने इसी को बहूपमा और भोज ने प्रपंचोपमा कहा है। रसनोपमा और शृंखलोपमा समानार्थक हैं। रीतिकालीन आचार्यों ने मम्मट तथा विश्वनाथ का अनुकरण किया है। इसकी विवेचना में चिन्तामणि, मतिराम और पद्माकर ने साहित्यदर्पण का आधार लिया तो कुलपति ने काव्यप्रकाश को आधार बनाया। दास ने उपमा और एकावली के मेल को रशनोपमा कहकर नया विचार दिया। अलंकारदर्पणकार का श्लेषोपमा भेद भी नया लगता है, जो श्लेषालंकार से मिलता-जुलता है। श्लेषालंकार की गणना शब्दालंकार और अर्थालंकार, दोनों में होती है। रुद्रट, मम्मट, विश्वनाथ आदि आचार्य इसे शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों में ही परिगणित करते हैं। उद्भट ने इसे अर्थालंकार माना तथा रुय्यक ने सभंगश्लेष को शब्दालंकार तथा अभंगश्लेष का अर्थालंकार कहा है। भरत के श्लेष गुण को परवर्तीकाल में भामह ने श्लेषालंकार बना दिया। दण्डी और उद्भट ने इस पर विशेष विचार किया । रुद्रट और भोज ने शब्दश्लेष और अर्थश्लेष को पृथक्-पृथक् कर दिया। मम्मट ने भी अन्वयव्यतिरेकभाव को निर्णायक तत्त्व मानकर उन्हीं का अनुकरण किया। विश्वनाथ पर भी मम्मट की ही छाप है । रुय्यक ने इसे अर्थालंकार कहा और दीक्षित ने अनेकार्थ शब्द विन्यास के रूप में प्रस्तुत किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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