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________________ III विभाजित कर दिया । तदनन्तर उद्भट ने छह और रुद्रट ने चार वर्गों में उन्हें समाहित किया । रुद्रट ने उभयालंकार जोड़कर तीन और रुय्यक ने उन्हें पाँच वर्गों में विभाजित किया सादृश्य, विरोध, श्रृंखलामूलक, न्यायमूलक और गूढ़ार्थप्रतिमूलक । विद्याधर और विद्यानाथ ने अर्थालंकरों पर विशेष बल दिया। रुय्यक ने उसी वर्गीकारण को छह वर्गों में सुबोध रूप से विभाजित किया- सादृश्यवर्ग, औपम्यगर्भवर्ग, विरोधगर्भवर्ग, शृंखलाकारवर्ग, न्यायमूलकवर्ग, और गूढार्थ प्रतीतिमूलकवर्ग । आधुनिक युग में भी इस वर्गीकारण का प्रयास हुआ है पर वह सर्वसम्मत नहीं बन सका। अलंकारदर्पणकर ने ऐसा अपना कोई वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं किया। भरत से अलंकारशास्त्र का प्रारम्भ माना जा सकता है। उन्होंने रूपक की दृष्टि से चार ही अलंकार गिनाये हैं- उपमा, रूपक, दीपक और यमक । पर आगे उन्होंने लगभग ३६ काव्य लक्षणों का निर्देश दिया है। अलंकारों में तीन अर्थालंकार और यमक नामक एक शब्दालंकार का विवेचन किया है पर दीपक और रूपक के भेदों का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। - वक्रोक्तिकार भामह ने अलंकारों की संख्या ३८ की पर वे हेतु, सूक्ष्म एवं लेश को अलंकारत्व प्रदान नहीं कर पाये। किन्तु दण्डी ने उन्हें अलंकार का उत्तम भूषण मानकर उन्हें सार्थकता दी। उन्होंने अलंकार और गुण दोनों को काव्य का शोभाधायक तत्त्व मानकर उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की। भामह और दण्डी की भांति उद्भट भी अलंकारवादी आचार्य रहे हैं, पर उन्होंने तीन अलंकारों को स्थान नहीं दिया- यमक, उत्प्रेक्षावयव और उपमारूपक । छेकानुप्रास, काव्यदृष्टान्त, संकर आदि जैसे कतिपय नये अलंकारों की उद्भावनाकर उन्होंने अलंकारों की संख्या ४१ कर दी और उन्हें छ: वर्गों में विभाजित कर दिया। रीतिसम्प्रदाय के प्रवर्तक वामन ने उपमा को प्रधान अलंकार मानकर उनकी संख्या ३२ कर दी और 'व्याजोक्ति' नामक नया अलंकार जोड दिया। रुद्रट अलंकारवादी होने पर भी इस सम्प्रदाय से प्रभावित रहे हैं। उन्होंने अलंकारों की संख्या ६२ कर दी और अर्थालंकारों को चार वर्गों में विभाजित कर दिया-वास्तव, औपम्य, अतिशय एवं श्लेष । कुन्तक ने इसे संकुचितकर उन्हें बीस की संख्या में समेटने का प्रयत्न किया। पर भोज ने सरस्वती कण्ठाभरण में उनकी संख्या ७२ कर दी। मम्मट ने अलंकार - विवेचन का परिष्कार करते हुए उनकी संख्या ६७ बतायी और सम, सामान्य, विनोक्ति एवं अतद्गुण को नये अलंकरों के रूप में प्रस्थापित किया। बाद में हेमचन्द ने ३३, वाग्भट्ट ने ३५, विश्वनाथ ने ८६, अप्पय दीक्षित ने १३३, और जगन्नाथ ने ७० अलंकारों का निर्धारण किया। अलंकार दर्पणकार ने मात्र ४४ अलंकारों की प्ररूपणा की और रसिक, प्रेमातिशय, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, उपमारूपक, उत्प्रेक्षायमक जैसे नये अलंकारों की स्थापना की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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