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________________ ४९ अलंकारदप्पण आशिषस्तातस्यापि सकलकलुषाणि तव नाशयन्तु । द्विजगुरूतपस्विकुमारस्वजनसुजनैः दत्ताः ।।११७।। ब्राह्मण, गुरू, तपस्विकुमार, स्वजन तथा सज्जनों के द्वारा दिए गए तथा पिता द्वारा भी दिए गए आशीर्वाद तुम्हारे समस्त पापों को नष्ट करें । यहाँ पर आशीर्वाद का कथन करने के कारण आशी: अलंकार है । 'आशी:' अलंकार को आचार्य दण्डी ने माना है । उनका लक्षण उदाहरण है आशीर्नामाभिलषिते वस्तुन्याशंसनं यथा । पातु वः परमं ज्योतिरवाङ्मनसगोचरम् ।। काव्या० २/३५६ आचार्य भामह भी इसे अलंकाररूप में स्वीकार करते हैं यह कहते हुए कि कुछ लोगों ने आशी: को भी अलंकार माना है। किन्तु परवर्ती आलंकारिक इसे अलंकार नहीं मानते। इसे प्रायः नाट्यालंकार के रूप में स्वीकार करते हैं । आचार्य कुन्तक ने इसके अलंकारत्व का खण्डन किया है। उपमारूपक तथा निदर्शना अलंकार का लक्षण उवमारूवअमेअं विरइज्जइ जत्य रूवए उवमा । णिअरिसणा हु विसिट्ठा चन्दा चिअ उवमारहिआओ ।।११८।। उपमारूपकमेतद् विरच्यते यत्र रूपके उपमा । . निदर्शना खल विशिष्टा 'चन्द्र इव' उपमारहिता ।।११८।। जहाँ पर उपमा में रूपक की रचना की जाती है उसे 'उपमारूपक' अलंकार कहते हैं । निदर्शना एक विशिष्ट उपमा है जहाँ पर 'चन्द्र इव' इत्यादि उपमा प्रयोग का अभाव होता है। उवमारूवअं जहा उपमारूपकं यथा) संपेसिअ णअण-सरा रसणा-रव-तरल-मिलिअ-घर-हंसा । खलिअ-जुआणा पसरइ मम्मह धाडिव्य धवलच्छी ।।११९।। संप्रेषित नयनशरा रशना रव तरल मिलितगृहहंसा । स्खलितयुवाना प्रसरति मम्मथ घाटीव धवलाक्षी ।।११९।। नेत्र रूपी बाणों को फेंकने वाली, करधनी के शब्द से चञ्चल तथा एकत्र हुए घरेलू हंसों वाली, युवकों को धैर्यच्युत करने वाली कामदेव के आक्रमण की तरह धवलाक्षी (धवलनेत्रों वाली) चल रही है। यहाँ पर हंस पद में श्लेष है । इसके दो अर्थ हैं- हंस और अश्व । "हंस: स्यान्मानसौकसि । निर्लोभविष्णवर्क परमात्मनि मत्सरे। योगिभेदे मन्त्रभेदे शारीरमरुदन्तरे तुरङ्गमप्रभेदे च" इति मेदिनी ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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