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अलंकारदप्पण संसिद्धि (संसृष्टि)तथा आशी अलंकार का लक्षण
विविहेहिं अलंकारेहिं एक्क-मिलिओहिं होइ संसिट्टि । आसीसालंकारं आसिव्वाअं चिअ भणंति ।।११५।। विविधैरलंकारैरेकमिलितैर्भवति संसिद्धिः (संसृष्टिः) । आशीरलंकारमाशीर्वादश्चैव
भणन्ति ।।११५।। जहाँ विविध अलंकार मिलकर एक ही स्थल पर रहते हैं उसे संसिद्ध (संसृष्टि) अलंकार कहते हैं । आशीर्वाद को ही आशी: अलंकार कहते हैं ।
जहाँ पर अनेक अलंकारों का तिलतण्डुलवत् निरपेक्षरूप से सहावस्थान होता है वहाँ संसृष्टि अलंकार होता है । जैसे -
लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नमः ।
असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता ।।
यहाँ पर पूर्वार्द्ध में उत्प्रेक्षा और उत्तरार्ध में उपमालंकार परस्पर निरपेक्ष रूप से स्थित हैं । इसके विपरीत जहाँ पर अनेक अलंकारों का नीरक्षीरन्यायेन परस्पर सापेक्षरूप से सहावस्थान होता है उसे 'संकर' अलंकार कहते हैं । यह संकर-संसृष्टि का भेद परवर्ती आलंकारिकों द्वारा किया गया है। आचार्य भामह तथा अलंकारदप्पणकार संकरालंकार नहीं मानते और विविध अलंकारों के योग में संसृष्टि ही मानते हैं। भामह की कारिका है .
वरा विभूषा संसृष्टिर्बह्वलंकारयोगतः ।। काव्या० ३/४९ ॥ संसिढी जहा (संसिद्धिर्यथा)
तुज्झ मुहं ससिमुहि! तुह मुहं णवपल्लव-कर-चलणा । थणआ सहजल कलसोव्व सुन्दरा कं ण मोहंति ।।११६।। तव मुखं शशिमुखि तव मुखमिव नवपल्लवकरचरणाः । स्तनाः शुभजलकलश इव सुन्दराः कंन मोहयन्ति ।।११६।।
हे चन्द्रमुखी ! तुम्हारा मुख तुम्हारे मुख के ही समान है। नए किसलय के समान (सुकुमार) हाथ और चरण हैं । (तुम्हारे) दोनों स्तन शुभजल के कलश के समान सुन्दर किसको मोहित नहीं करते ।
यहाँ पर प्रथम चरण में अनन्वय अलंकार है । यद्यपि ग्रन्थकार ने अनन्वय अलंकार नहीं बताया है । ग्रन्थकार के द्वारा दिये गए असमा उपमा अलंकार से अमन्वय अलंकार तुलनीय है। द्वितीय चरण तथा तृतीय चरण में उपमा अलंकार है। अत: अनेक अलंकारों के सहावस्थान के कारण यह संसिद्धि (संसष्टि) अलंकार है। आसीसा जहा (आशीर्यथा)
आसीसं तातस्सइ (वि) सअल-कलुसाइं तुम्ह णास्तु । दिअ-गुरु-तवसि-कुआरि सइअण-सुणएहिं दिण्णाई ।।११७।।
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