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________________ अलंकारदप्पण ४७ तथा उस पर नमिसाधु की टीका को समझना भी आवश्यक है । रुद्रट का रूपक का लक्षण है यत्र गुणानां साम्ये सत्युपमानोपमेययोरभिदा । अविवक्षितसामान्या कल्पते इतिरूपकं प्रथमम् ।। काव्यालंकार अर्थात् जहाँ पर गुणों की तुल्यता होने पर साधारण धर्म के कथन के विना उपमान और उपमेय में अभेद कल्पित होता है। उसे रूपक कहते हैं । रूपक में तथा उत्प्रेक्षा में उपमान-उपमेय का अभेद होने पर भी भेद होता है। इसे नमिसाधु इन शब्दों में समझते हैं 'उत्प्रेक्षायामप्यभेदो विद्यते ततस्तनिरासार्थमाह - अविवक्षितसामान्येति । सदप्यत्र सामान्यं न विवक्षते । सिंहो देवदत्त इति । उत्प्रेक्षायां तु छद्मलक्ष्म व्याज व्यपदेशादिभि: शब्दै रुपमानोपमेययोरभेदो भेदश्च विवक्षित: इति । परमर्थतस्तूभयत्राभेद एवेति ।' वस्तुत: रूपकालंकार में उपमान और उपमेय का अभेद विवक्षित होता है किन्तु उत्प्रेक्षा में उपमेय की उपमान रूप से अभेद की संभावना की जाती है । तद्ररूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः । का. प्र. संभावनामथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् ।। का. प्र. अलंकादप्प्पण का उत्प्रेक्षा का लक्षण भामह के उत्प्रेक्षा लक्षण से भी तुलनीय है। भामह का लक्षण है - अविवक्षित सामान्या किञ्चिदुपमया सह । अतदगुणक्रियायोगादुत्प्रेक्षातिशयान्विता । काव्य. २/९१।। ओपेक्खा जहा (उत्प्रेक्षा यथा) दीसइ पूरिअ संखो व्व मलअ-मारुअ-णरेंद-संचलणे। दर-दलिअ-मल्लिआ-मउल-लग्ग-मुह-गुञ्जिरो भमरो ।।११४।। दृश्यते पूरितशल इव मलय-मारुत-नरेन्द्र-सञ्चलने । दरदलितमल्लिकामुकुललग्नमुखगुज्जितो भ्रमरः ।।११४।। ईषत् खिले हुए मल्लिका पुष्प के मुकुल में मुख लगा कर गुजार करने वाला भ्रमर ऐसा प्रतीत होता है मानों मलय पवन रूपी राजा के चलते समय बजाया गया शंख हो। यहाँ पर भ्रमर उपमेय है और पूरितशल उपमान है । भ्रमर में पूरितशङ्ग के अभेद की संभावना होने के कारण उत्प्रेक्षालंकार है। 'इव' शब्द यहाँ पर उत्प्रेक्षाव्यञ्जक है क्यो कि यह उपमान लोक सिद्ध नहीं है । पूरितशङ्ख तो वस्तुतः लोक सिद्ध है किन्तु मलय पवन रूपी राजा के चलने में शंख नहीं बजाया जाता इसीलिये लोक में असिद्ध उपमान के कारण उत्प्रेक्षा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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