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अलंकारदप्पण की शय्या) लगे हुए हैं।
यहाँ पर नखक्षत एवं लगे हुए शयनीय दलों वाले अङ्ग लिङ्ग हैं और इनसे उसके विलास का अनुमान हो रहा है। अतः यह अनुमानालंकार है। आदर्शालंकार का लक्षण
आअरिसम्मि व जासिं वित्थर-रोयणाणं तु अफुड-च्छाआ । दीसंति पअव्वाहिअअ-हारिणो सो हु आअरिसो।।१११।। आदर्श इव यस्मिन् विस्तरलोचनानां तु अस्फुटच्छायाः ।
दृश्यन्ते पदव्यां हृदयहारिणः स खलु आदर्शः ।।१११।।
मार्ग में हृदयहारक (नायकादि) के विस्तृत नेत्रों की अस्फुटच्छाया दर्पण में पड़े हुए की तरह जहाँ दिखाई दे वह आदर्श नामक अलंकार है। आआरेसो जहा (आदर्शो यथा)
केलि-परा मोसरमाण तुअ फंसूसवं अपाअन्ता। हत्था से (ते) णह-किरण-च्छलेण धराहि व तुवन्ति ।।११२।। केलि-परा मोष्यमाणं तव स्पशोत्सवमप्राप्नुवन्तः ।
हस्तास्तस्य नहकिरणच्छलेन धाराभिरिव तुदन्ति ।।११२।।
चुराए जाते हुए तुम्हारे स्पर्शसुख को न प्राप्त करते हुए क्रीडारत उसके (नायक के) हाथ नाखूनों से निकलने वाली किरणों के व्याज से मानों धाराओं द्वारा (स्पर्श-योग्य अंगों को) पीड़ित कर रहे हैं।
यहाँ पर नायक के नखकिरणों की छाया नायिका के अंगों में प्रतिम्बित हो रही है जैसे आदर्श (दर्पण) में प्रतिबिम्बित होती है । वह किरणच्छाया जलधरा के समान नायिका के अंगों में पहुँच कर मानों उन्हें पीड़ित-सी कर रही है । इस आदर्श नामक अलंकार को अन्य किसी आलंकारिक ने स्वीकार नहीं किया। उत्प्रेक्षा अलंकार का लक्षण
थोवोवमाइ सहिआ संतकिरणा-गुणाणुजोएण । अवि(व)वक्खिअ सामस्से (सामण्णे)उपेक्खा होइ साइसआ ।।११३।। स्तोकोपमया सहिता शान्तकिरणा गुणानुयोगेन । अविवक्षितसामान्ये उत्प्रेक्षा भवति सातिशया ।।११३।।
किञ्चिद् उपमा से युक्त क्रिया गुणानुयोग (साधारणधर्म के सम्बन्ध से) के कारण उपमान उपमेय की विकीर्णता (भेद) से रहित तथा सामान्य धर्म की विवक्षा होने से अतिशया उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
ग्रन्थकार द्वारा दिया गया उत्प्रेक्षा का उक्त लक्षण कुछ अस्पष्ट प्रतीत होता है। वस्तुत: इसे सम्यग् रूप से समझने के लिए आचार्य रुद्रट के रूपाकालंकार का लक्षण
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