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________________ अलंकारदप्पण ४५ उपमा का एक भेद मात्र बताकर १५वीं कारिका में उसका उदाहरण प्रस्तुत किया है । इस विसंगति का कारण समझ में नहीं आता । अप्रस्तुतप्रसंगालंकार के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि यह अप्रस्तुतप्रशंसा न होकर 'विशेषालंकार' का ही एक भेद है । अप्पत्थुअप्पसंगो जहा (अप्रस्तुतप्रसंगो यथा) । साऽऽसुक्कोअण गआ उअहं बहुआइ सुण्ण-देवउलं । पत्तो दुल्लहलंभो वि अण्ण-कज्जागओ जारो ।।१०९।। साऽऽशु कोपेन गता पश्यत बहुकादिशून्यदेवकुलम् ।। प्राप्तो दुर्लभलाभोऽप्यन्य कार्यागतो जारः ।।१०९।। देखो, वह क्रोध के कारण शीघ्र बहुजनशून्य देवालय में पहुँची ।(वहाँ) अन्यकार्य से आए हुए जार का दुष्प्राप्य लाभ हआ । प्रस्तुत उदाहरण आचार्य मम्मट के विशेषालंकार के तृतीय भेद का भी उदाहरण बन सकता है । उनके विशेषालंकार के तृतीय भेद का लक्षण इस प्रकार है अन्यत्प्रकुर्वतः कार्यमशक्यस्यान्यवस्तुनः । तथैव करणञ्चेति विशेषस्त्रिविधः मतः ।। का. प्र. १३६ ऊपर के अप्रस्तुतप्रसंग अलंकार के उदाहरण में क्रोध के कारण सने देवालय में पहँची नायिका को जार का अप्रत्याशित लाभ हो गया अत: मम्मट के अनुसार विशेषालंकार ही होगा। यद्यपि अलंकारदप्पण का अप्रस्तुतप्रसंगालंकार भामह के अप्रस्तुत प्रशंसा से पूर्ण साम्य रखता है तथापि उसे उदाहरण में संगत करना संभव नहीं है । भामह का लक्षण इस प्रकार है - अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः । अप्रस्तुतप्रशंसेति सा चैव कथ्यते यथा ।। काव्या. २/२९। आगे अनुमान का उदाहरण देते हैं - अणुमाणं जहा (अनुमानं यथा) Yणं तीअ वि सूअन्ति तेण सह विलसि वआसे (अस्से) ण । णह-वअ-पल्लव-लग्गा (इं) सअणिज्ज-दलाई अंगाई ।।११०।। नूनं तस्या अपि सूचयन्ति तेन सह विलसितं प्रयासेन । नखपदपल्लवलग्न शयनीयदलानि अङ्गनि ।।११०।। (नायिका के) अङ्ग सूचित करते हैं कि उसने प्रयत्नपूर्वक उस (नायक) साथ विलास किया है । उसके अङ्गों में नखक्षत के चिह्न तथा पदपल्लवों में शयनीयदल (पत्तों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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