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अलंकारदप्पण विवक्षित गुणोत्कृष्टैर्यत् समीकृत्य कस्यचित् । कीर्तनं स्तुतिनिन्दार्थं सा मता तुल्ययोगिता ।।काव्या.२/३३०॥ चन्द्रालोक में तुल्ययोगिता का यह लक्षण है - वानामितरेषां वा धमैक्यं तुल्ययोगिता । संकुचन्ति सरोजानि स्वैरिणीवदनानि च ।।
अलंकारदप्पणकार का समयोगितालंकार आचार्य भामह के तुल्ययोगितालंकार से तुलनीय है -
न्यूनस्यापि विशिष्टेन गुणसाम्यविविक्षया ।
तुल्यकार्यक्रिया योगादित्युक्ता तुल्ययोगिता ।। काव्या. ३/२७। समजोइअं जहा (समयोजितं यथा)
सअणस्स परं रज्जं कीरइ रइ-तरल-तरुणि-णिवहस्स । समआल-चलिअ-मणि-वलय-मेहला-णेउर-रवेण ।।१०७।। स्वजनस्य (शयनस्य) परं राज्यं क्रियते रतितरलतरुणिनिवहस्य । समकाल , चलित मणिवलय मेखलानपुररवेण।।१०७।। रतिचञ्चल तरुणी समूह के समकाल में चलित मणिखचित कङ्कण तथा करधनी और नुपुर के शब्द द्वारा स्वजनों में परम राज्य किया जाता है, अथवा शयन अर्थात् शय्या में वलय मेखला और नूपुर के शब्द राज कर रहे हैं अर्थात् सर्वोत्कृष्ट रूप से विराजमान
यहाँ पर महान् तरुणी समूह तथा हीनगुण वाले वलय, मेखला और करधनी का रव के साथ सम्बन्ध होने के कारण समयोगितालंकार है। अप्रस्तुतप्रसंग तथा अनुमानालंकारों का लक्षण
अप्पत्युअ-प्पसंगो अहिआर-विमुक्क-वत्थुणो भणणं । अणुमाणं लिंगेणं लिंगी साहिज्जए जत्थ ।।१०८।। अप्रस्तुत प्रसंगोऽधिकारविमुक्तवस्तुनो भणनम् ।
अनुमानं लिङ्गेन लिङ्गी साध्यते यत्र ।।१०८।।
प्रस्तुत प्रसंग से रहित वस्त्वन्तर का कथन अप्रस्तुतप्रसंग अलंकार है और जहाँ लिङ्ग के द्वारा लिङ्गी को सिद्ध किया जाता है उसे अनुमान अलंकार कहते हैं।
यहाँ पर कारिका के पूर्वार्ध में अप्रस्तुतप्रसंगालंकार का तथा उत्तरार्ध में अनुमानालंकार का लक्षण दिया गया है । ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में अलंकारों की गणना के क्रम में समयोगितालंकार के बाद अप्रस्तुतप्रशंसालंकार को रक्खा है किन्तु यहाँ पर 'अप्रस्तुत प्रसंग' नाम दिया है । इसके अतिरिक्त उपमा के भेदों के प्रसंग में अप्रस्तुत प्रशंसा को
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