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________________ अलंकारदप्पण ४३ अपना चेहरा घुमाकर तुम्हारी ओर उसी तरह झाँक रही है जिस तरह वह अन्य लोगों की ओर उन्हें विश्वस्त करने के लिए झाँकती है ॥ १०३ ॥ (सम्पादक) यहाँ पर सहोक्ति उपमा और हेतु मूलक त्रिविध श्लेष, भामह के त्रिविध श्लेष से सर्वथा साम्य रखते हैं । भामह की कारिका है श्लेषादेवार्थवचसोरस्य तत्सहोक्त्युपमाहेतुनिर्देशात् त्रिविधं व्यपदेशस्तुति नामक अलंकार का लक्षण - च क्रियते भिदा । यथा ।। काव्या. ३/१७।। (अच्चुब्भड ) - गुण-संथुइ - वच्चसे (बबए) स-वसेण सविसआ जत्थ । कीरइ णिद्दा (णिंदा) इत्थिआ सा ववओस - थुई णामं ।। १०४।। अत्युद्भटगुणसंस्तुतिव्यपदेशवशेन सविषया यत्र । क्रियते निन्दा स्थिता सा व्यपदेशस्तुतिर्नाम ।। १०४ । । अत्युद्भट गुणों की संस्तुति के व्याज से जहाँ प्रतिपाद्य विषय की निन्दा विद्यमान रहती है उसे व्यपदेश स्तुति नामक अलंकार कहते हैं । ववएसत्थुई जहा (व्यपदेशस्तुतिर्यथा) अकुलीणे पअत (इ) - जडे अकज्जवंके जीए ससंकम्मि । तुज्झ जसो गर सेहर किज्ज सुअणा-विअ णामाइ ।। १०५ ।। अकुलीने प्रकृतिजडे अकार्यवक्रे जीवे सशङ्के । तव यशो नरशेखर नरशेखर कुर्यात् श्रवणवेदना मायि ।। १०५ ।। हे राजन! तुम्हारा मायावी यश अकुलीन, प्रकृत्या जड, अकारण-वक्र तथा शङ्कालु प्राणी में श्रवणवेदना करे । यहाँ पर यश को मायावी और श्रवणवेदना कारक बताकर आपातत: निन्दा की जा रही है किन्तु इससे राजा के यश की स्तुति ही व्यङ्ग्य हैं । समयोगिता (तुल्ययोगिता) अलंकार का लक्षण Jain Education International गुण- सरिसत्तण-तण्हाइ जत्य हीणस्स गुरुअएण समं । होइ समकाल-किरिआ जा सा समजोइआ साहु ।। १०६ ।। गुणसदृशत्वतृष्णया यत्र हीनस्य गुरुकेण समम् । भवति समकाल क्रिया या सा समयोगिता साधु ।। १०६ ।। जहाँ पर समान गुण का वर्णन करने की इच्छा से हीन की महान के साथ समकाल में क्रिया दिखाई जाती है उसे समयोगिता अलंकार कहते हैं । 1 अलंकारदप्पणकार का समयोगिता अलंकार अन्य मम्मटादि आलंकारिकों का तुल्ययोगिता अलंकार है । सभी प्रस्तुतों का या सभी अप्रस्तुतों का एक ही क्रिया या गुण के साथ अन्वय होना ही तुल्ययोगितालंकार कहा गया है। आचार्य दण्डी ने तुल्ययोगिता के लक्षण में प्रस्तुत या अप्रस्तुत की चर्चा नहीं की है। उनका लक्षण है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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