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अलंकारदप्पण यह श्लेष लक्षण आचार्य भामह के श्लिष्ट लक्षण से तुलनीय है। भामह का लक्षण है
उपमानेन यत्तत्त्वमुपमेयस्य साध्यते ।
गुणक्रियाभ्यां नामा च श्लिष्ट तदभिधीयते ।। काव्या. ३/१४॥ सहोक्ति सिलेसो जहा (सहोक्तिश्लेषो यथा)
पीणा घणा अ दूरं समुण्णआ णह-विअत्तिअ च्छाआ । मेहा घणआई तुह पिट्ठवत्ति तण्हाउरो लोओ ।।१०१।। पीना घनाश्च दरं समुन्नता नभोविवर्तितच्छायाः (नखविवर्तिच्छायाः) । मेघा घनतया तव नियिति तृष्णातुरो लोकः ।।१०१।।
हे परिपुष्ट, सघन, दूर तक उन्नत, आकाश में फैली छाया वाले, नखक्षत से बदली कान्ति वाले ! पयोधरो! सघनता के कारण तृष्णातुर लोक (प्यासे लोग, कामतृष्णा से व्याकुल) तुम्हारा ध्यान करता है।
यहाँ पर उपमेय 'मेहा' शब्द है । उपमान पक्ष (अप्रस्तुत पक्ष) में स्तनों का निरूपण भी इसी शब्द से होता है । अत: श्लेष के बल से उपमान उपमेय दोनों का कथन होने के कारण सहोक्तिश्लेष अलंकार है। उवमासिलेसो जहा (उपमाश्लेषो यथा)
दूराहिं चिअ णज्जइ रक्खा सहस्स (सं)सूइअं गमणं । लहुइअ-महिहर-सत्ताणु मत्त-हत्थीण व पहूणं ।।१०२।। दूरादेव ज्ञायते रक्षाशब्दस्य संसूचितं गमनम् ।
लघुकृतमहीधरसत्तानां मत्तहस्तीनां इव प्रभूणाम् ।।१०२।। पर्वतों की सत्ता को छोटा बनाने वाले मत्त हाथियों के समान राजाओं का रक्षाशब्द के द्वारा सूचित गमन दूर से ही ज्ञात हो जाता है । हाथियों की तङ्गता और राजाओं की महत्ता के कारण पर्वतों की ऊँचाई छोटी लगने लगती है । हाथी का चलना उसके दोनों तरफ लटकने वाले घण्टों से शब्द से दूर से ही पता चल जाता है तथा राजाओं का चलना भी उनकी रक्षा के निमित्त उत्सारणा करने वाले लोगों के शब्द से दूर से ही ज्ञात हो जाता है। जब राजा चलते हैं तो उनकी रक्षा के निमित्त उनके आगे-आगे 'उत्सरत आर्याः उत्सरत' कहते हुए उत्सारणा करने वाले लोगों को हटाते हुए चलते हैं ।
यहाँ पर 'हस्ती' उपमान है तथा प्रभु उपमेय । पद्य के पूर्वार्द्ध तथा तृतीय चरण में साधारण धर्म हैं जो दोनों पक्षों में अन्वित होते हैं । अत: यहाँ उपमा श्लेषा है । हेतुसिलेसो जहा (हेतुश्लेषो यथा)
हेला-विसविअ-मअण-ग्गणेण समपेच्छआइ अ जणस्स ।
अलिअ-परम्मुह-आए भद्द! णअणप्पहो तं सि ।।१०३।। इस कारिका का अर्थ रूप अलंकार प्रसंग में अधिक स्पष्ट नहीं है। इसका अर्थ यह हो सकता है - हे भद्र ! तुम उस कामिनी के दृष्टि-पथ में हो जो झूठ-मूठ रूप से
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