SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलंकारदप्पण ४१ में ही हो जाता है क्योंकि पूर्वार्द्ध के सभी कारक पदों का ‘भवन्ति' इस एक क्रिया से अन्वय होता है । इसी प्रकार क्रियोत्तर अलंकार का कारकदीपक में तथा गुणोत्तर अलंकार का क्रियादीपक में अन्तर्भाव हो जाता है। किरिउत्तरो जहा (क्रियोत्तरो यथा) मा रुअउ मा किसाअउ मा खिज्जउ मा विहिं उआलहउ । जा णिक्किवा तुह बहु-वल्लहस्स वरई पडे पडिआ ।।९८।। मा रोदी: मा क्लिश्नातु मा खिद्यता मा विधिमुपालभताम् । या निष्कृपा तव बहुवल्लभस्य वराकी पदे पतिता ।।९८।। ईर्ष्याकषायिता नायिका द्वारा प्रताडित खिन्न नायक से कहा जा रहा है मत रोओ, क्लेश मत करो, खिन्न मत होओ भाग्य को मत कोसो क्योंकि अनेक वल्लभाओं वाले तुम्हारे प्रति निर्दय बनी नायिका अब तुम्हारे चरणों पर पड़ी हुई है। यहाँ पर पूर्वार्ध में निर्दिष्ट अनेक क्रियाओं की प्रधानता के कारण क्रियोत्तर अलंकार है। गुणुत्तरो जहा (गुणोत्तरो यथा) ससिसोम्म! सरल! सज्जण! सच्च-वअ सुहअ! सुवरिअ! सलज्ज । दिट्ठो सि जहि रूअं ते ताइ (तुह)कह णु ण णरिंद? ।।१९।। शशिसोम्य ! सरल ! सज्जन! सत्यवचः ! सुभग! सुवर्य ! सलज्ज! । दृष्टोऽसि यस्मिन् रूपं ते तस्मिन् कथं नु न नरेन्द्र!।।९९।। हे चन्द्रमा के समान सौम्य, सरल, सज्जन, सत्यवचन, सुन्दर, सुवरेण्य, सलज्ज राजन् तुम पहचान लिये गए हो क्योंकि जहाँ रूप (सुरूप) होता है वहाँ ये (सौम्यता, सारल्यादि) गण कैसे नहीं होगें। ऐसी मान्यता रही है कि जहाँ सन्दर आकृति होती है वहाँ गण भी अवश्य रहते हैं - "यत्राकृतिस्तत्र गणा वसन्ति"। कालिदास भी कहते हैं - 'यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये न रूपमित्यव्यभिचारि तद्वचः' 'सत्यं तादृशा आकृतिविशेषा गुणविरोधिनो न भवन्ति ।' गुणोत्तर अलंकार के उदहारण में पद्य के पूर्वार्ध में गुणों की प्रधानता सुस्पष्ट है। श्लेषालंकार का स्वरूप उवमाए उवमेएं रूइज्जइ जेण सो सिलेसत्ति । सो उण सहोत्ति उअमा हेऊहिंतो मुणेअव्वो ।।१०।। उपमया उपमेयं रूप्यते येन स श्लेष इति ।। स पुनः सहोक्त्युपमाहेतुभ्यो मन्तव्यः ।।१०।। जहाँ उपमान और उपमेय एक ही शब्द से निरूपित हो वह श्लेष है । और वह श्लेष सहोक्ति, उपमा तथा हेतु को लेकर तीन प्रकार का समझना चाहिये अर्थात् वह श्लेष अलंकार सहोक्ति श्लेष, उपमाश्लेष और हेतुश्लेष से तीन प्रकार का होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy