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अलंकारदप्पण नायिका की करधनी के शब्द से चञ्चल हए पालतू हंस उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं । वे हंस ही कामदेव के आक्रमण में चलने वाले अश्व हैं । उसके नेत्र बाण हैं। इस प्रकार उसके आक्रमण से युवकजनों का धैर्य टूट जाता है।
यहाँ पर 'नयलशरा' में रूपक है तथा 'मिलितगृहहंसा' में भी श्लिष्ट रूपक है और मन्मथघाटीव में उपमा है इसलिये यह उपमारूपक अलंकार का उदाहरण है। आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श में उपमारूपक का यह लक्षण दिया है -
साधर्म्यवैधर्म्यदर्शनागौणमुख्ययोः । उपमाव्यतिरेकाख्यं रूपकद्वितयं यथा ।। काव्यादर्श २।८८
गौण (अप्रस्तुत) तथा मुख्य (प्रस्तुत) में साधर्म्य दिखाने से उपमारूपक होता है तथा वैधर्म्य दिखाने से व्यतिरेकरूपक होता है । उपमारूपक का दण्डी ने यह उदाहरण दिया है -
अयमालोहितच्छायो मदेन मुखचन्द्रमाः ।
संनद्धोदयरागस्य चन्द्रस्य प्रतिगर्जति ।। २।८९
उपमारूपक अलंकार प्राचीन आलंकारिक भामह, दण्डी तथा वामन द्वारा मान्य है। णिअरिसणं जहा (निदर्शनं यथा)
दावन्ति जलहरा सअल दंसण-वहं समारूढा । खण-विहडन्त-घण-समुल्लई रह अ काल-कीडाओ ।।१२०।। द्रवन्ति जलधराः सजल दर्शनपथं समारूढाः ।।
क्षणविघटधनसमुन्नतिः रहस्यकालक्रीडातः ।।१२।।
जलयुक्त दृष्टिपथ में आए हए मेघ तितर-वितर हो जाते हैं। क्षणभर में ही विघटित होने वाले मेघों की समुन्नति रहस्यमयी कालक्रीड़ा के कारण है।
यहाँ पर मेघों का तितर-बितर हो जाना प्रस्तुत पक्ष है और कालक्रीड़ा अप्रस्तुत। दोनों का परस्पर उपमानोपमेय भाव में पर्यवसान होता है । इवादि के द्वारा उपमा का कथन नहीं है । अत: इसका पार्यन्तिक अर्थ होगा - जिस प्रकार काल क्षणभर में ही उत्थान पतन कर देता है उसी प्रकार मेघ भी आकाश में क्षणभर में ही उमड़ते हैं और तितर-वितर हो जाते हैं। उठोक्षावयव अलंकार का लक्षण
होइ सिलेस छलेणं मज्जंता (ती?) रूअअण अफुडेण । उम्पेक्खा, एसा सुआ उप्पेक्खावअव-णामा हु।।१२१।। भवति श्लेष-च्छलेन मज्जब्रूपकेनास्फुटेन ।
उत्प्रेक्षा एषा श्रुता उत्प्रेक्षावयवनामी खलु ।।१२१।। श्लेष के व्याज से अन्तर्निगूढ अस्पष्ट रूपक (उपमानोपमेयाभेदरूप) से उत्प्रेक्षा
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