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अलंकारदप्पण समाहित तथा विरोध अलंकार
अणवेक्खिअ-पत्त-सहाअ-संपआए समाहिओ होइ । गुण-किरिआण-विरोहेण एस भणिओ विरोहोत्ति ।।७१।। अनपेक्षितापनसहायसम्पदा समाहितो भवति । गुणक्रियाणां विरोधेन एष भणितो विरोध इति ।।७१।।
अनपेक्षित रूप से उपस्थित सहाय सम्पत्ति से 'समाहित' अलंकार होता है तथा गुण और क्रिया के विरोध से 'विरोधालंकार' होता है । समाहिओ जहा (समाहितो यथा)
अच्चंन्त-कुविअ-पिअअव (म)-पसाअणत्थं पअडमाणी । उइओ चन्दो वि ततो अपसरिओ मलअ-गंधवहो ।।७२।। अत्यन्त कुपित प्रियतम प्रसादनार्थं प्रवृत्तमानायाः ।
उदितश्चन्द्रोऽपि तत आवसरिको मलयगन्धवहः ।।७२।।
अत्यन्त कुपित प्रियतम को प्रसन्न करने के लिये प्रवृत्त नायिका के लिये (भाग्य से) चन्द्र उदित हो गया और सामयिक (अवरोचित) मलयानिल भी बहने लगा।
ग्रन्थकार ने 'समाहित' अलंकार का लक्षण और उदाहरण आचार्य दण्डी के अनुसार ही किया है । आर्चाय दण्डी कहते हैं
किञ्चिदारभमाणस्य कार्यं दैववशात् पुनः । तत्साधनसमापत्तिर्या तदाहुः समाहितम् ।। काव्यादर्श २/२९८ मानमस्या निराकर्तुं पादयोर्म नमस्यतः । उपकाराय दिष्ट्यैतदुदीर्णं घनगर्जितम् ।। । २९९
ग्रन्थकार के 'समाहित' अलंकार को आचार्य मम्मट ‘समाधि' अलंकार मानते हैं और उसका लक्षण इस प्रकार करते हैं - ___ 'समाधि: सुकरं कार्य कारणान्तरयोगतः” का.प्र./१२५
इस का उदाहरण भी वही देते हैं जो ऊपर दण्डी द्वारा दिया गया है । समाधि और समाहित समानार्थ ही है । किन्तु आनन्दवर्धन के अनन्तर 'समाहित' शब्द केवल रसवदादि अलंकारों के अन्तर्गत ही परिगणित है । रस, भाव, रसाभास भावाभास तथा भावप्रशम के गुणीभत होने पर इन्हें क्रमश: रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वि और समाहित अलंकार कहा जाता है । 'समाहित' को रसवदादि अलंकार न मानना अलंकारदप्पणकार की प्राचीनता द्योतित करता है। विरोहो जहा (विरोधो यथा)
तुज्झ जसो हर-ससहर-समुज्जलो सअल (य) व (य?) णिअ दिदंवि । मइलइ णवर वर वेरि-वीर-वहु-वअण-कमलाहं ।।७३।।
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