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अलंकारदप्पण तव यशो हरशशधरसमुज्ज्वलं सकलवचनीयदृढमपि । मलिनं न भवति वरवैरिवीरवधूवदनकमलाभम् ।।७३।।
आपकी कीर्ति सकल वचनीयता से युक्त भी (वैरियों द्वारा लगाये गए दोषों से युक्त भी) शंकर के (जटजूट में स्थित) चन्द्र के समान धवल है; तथा जैसे चन्द्रमा कलङ्कित होने पर भी धवल ही है । वैरिजनों के वधूजनों के मुखकमल की आभा के समान (यश) मलिन नहीं होता ।
___ यहाँ पर विरोधी गुणों के सहावस्थान के कारण विरोधालंकार है । सन्देह अलंकार का लक्षण
उवमाणेण सरूअं भणिऊण भस्सए जहिं भेओ । थुइकरणेणं संदेह-संसिओ सो हु संदेहो ।।७४।। उपमानेन स्वरूपं भणित्वा भाष्यते यस्मिन् भेदः ।
स्तुतिकरणेन सन्देहसंश्रितः स खलु सन्देहः ।।७४।।
जहाँ पर उपमान के द्वारा स्वरूप को कहकर भेद का कथन होता है, स्तुति करने में सन्देह का आश्रय लिया जाता है वहाँ सन्देह अलंकार होता है ।
प्रस्तुत (उपमेय) में अप्रस्तुत (उपमान) का संशय होना ही सन्देह अलंकार है किन्तु ऐसा संशय कविप्रतिभा से उत्थापित होना चाहिये । यह 'सन्देह' आचार्य मम्मट के अनुसार दो प्रकार का होता है -भेदोक्तिमूलक, भेदानुक्तिमूलक और यह भेदोक्तिमूलक भी निश्चयगर्भ तथा निश्चयान्त भेद से दो प्रकार का होता है। मम्मटने सन्देह को ससन्देह नाम दिया है। उनका लक्षण है
___ ससन्देहस्तु भेदोक्तौ तदनुक्तौ च संशयः । का.प्र./९२
अलंकारदप्पणकार का सन्देह अलंकार आचार्य भामह के ससन्देहालंकार से तुलनीय है -
उपमानेन तत्त्वं च भेदं च वहतः पुनः ।
ससन्देहं वचःस्तुत्यै ससन्देहं विदुर्यथा ।। काव्यालंकार २/४३।। सन्देहो जहा (सन्देहो यथा)
किं कमलमिणं(णो) तं स-केसरं किं ससी ण तत्थ मओ । दि8 सहि तुज्झ मुहं ससंसअं अज्ज तरूणेहिं ।।७५।। किं कमलमिदं तत्सकेसरं कि शशी न तत्र मृगः । दृष्टं सखि तव मुखं ससंशयमद्य तरुणः ।।७५।।
नायिका मुख की प्रशंसा करती हुई सखी नायिका से कहती है - क्या यह कमल है ? (किन्तु) वह तो केसर युक्त होता है, क्या यह चन्द्रमा है पर यहाँ मृग (कलङ्क) तो है नहीं । इस प्रकार हे सखी! आज तरुणों ने तुम्हारे मुख को संशय के साथ देखा ।
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