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________________ १७ अलंकारदप्पण भेआ णामेहिं चिअं हरिअ-च्छाएहिं रूवआण कया । अत्यो लभिज्जइ च्चिअ सअले अर रूअआहिन्तो ।।४३।। भेदाः नामभिरेवं हरितच्छायै रूपकाणां कृताः। अर्थो लभ्यते चैव सकलः वररूपकात् ।। ४३।। सुन्दर कान्ति वाले नामों से रूपकों के भेद किये गए हैं । श्रेष्ठ रूपक (योजना) से समस्त अर्थ की प्रतीति हो ही जाती है । सकलवत्थुरूअअं जहा -(सकलवस्तुरूपकं यथा) गअणसरोयं पेच्छह पाउसम्मि तणु-किरण-केसर-सणाह। तारा-कुसुममिव-वणं महभरणमउलं समवक्कमइ ।। ४४।। गगनसरोजं प्रेक्षस्व प्रावृषि तनुकिरणकेसरसनाथम् । ताराकुसुममिव वनं महभरणीमुकुलं समवक्रामति ।। ४४।। वर्षाकालीन चन्द्रमा का वर्णन करता हुआ कवि कहता है - आकाश के कमल को देखो जो वर्षाकाल में क्षीण किरण रूपी किंजल्क से युक्त होकर तारे रूपी फूलों वाले, तेजोयुक्त भरणीनक्षत्ररूपी मुकुल वाले वन को आक्रान्त कर रहा है । यहाँ पर चन्द्र में कमल का आरोप, किरण में केसर का आरोप, तारा में पुष्प का आरोप, भरणीनक्षत्र में मुकुल का आरोप और गगन में वन का आरोप होने के कारण समस्तवस्तु रूपक है। समस्तवस्तुविषय रूपक का एक सुन्दर उदाहरण आचार्य उद्भट ने इस प्रकार दिया है ज्योत्स्नाम्बुरेन्दुकुम्भेन ताराकुसुमशारितम् । क्रमशो रात्रिकन्याभिव्योमोद्यानमसिच्यत ।। चांदनी रूपी जल वाले चन्द्र रूपी घड़े से रात्रिरूपी कन्याओं द्वारा तारे रूपी फूलों से चित्रित आकाशरूपी उद्यान सींचा गया । एक्केकदेसरूवअं जहा- (एकैकदेशरूपकं यथा) अविरअ पसरिय धारा-णिवाअ-णिट्ठविय पंथिअ समूहो । मारिहइ मं सदइअंपि णिक्किवो पाउस चिलाओ ।।४५।। अविरतप्रसृत-धारा-निपात-निस्थापितपथिकसमूहः । मारयिष्यति मां सदयितमपि निष्कृपः प्रावृकिरातः ।। ४५।। वर्षाकाल रूपी निर्दय किरात निरन्तर धारासम्पात से पथिकजनों को विस्थापित करने वाला दयिता से युक्त भी मुझे मार डालेगा। यहाँ पर उपमेय प्रावृट् में उपमान किरात का आरोप होने से एकैकदेशरूपक है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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