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अलंकारदप्पण रूपक अलंकार
उवमाणेणुवमेअस्स जं च रूविज्जओ वि रूवि खु । दव्व गुण सम्मअं तं भणन्ति इह रूवअं कइणो ।।४१।। उपमानेनोपमेयस्य यच्च रूप्यते (रूप्यमाने)अपि रूपितं खलु । द्रव्यगुणसम्मत्तं तद् भणन्ति इह रूपकं कवयः ।। ४१।।
जहाँ पर उपमेय का उपमान से द्रव्य गुण सम्मत (अभेद) निरूपित किया जाता है उसे कविगण रूपक अलंकार कहते हैं । रूपित का अर्थ उपमान है और रूप्यमान उपमेय का पर्याय है । अलंकारदप्पणकार का यह रूपक लक्षण तथा रूपक भेद निरूपण आचार्य भामह के रूपक से साम्य रखता है।
उपमानेन यत्तत्त्वमुपमेयस्य रूप्यते । गुणानां समतां दृष्ट्वा रूपकं नाम तद्विदुः ।। काव्यालं.२/२१ समस्त वस्तु विषयमेकदेशविवर्ति च । द्विधा रूपकमुद्दिष्टमेतत्तच्चोच्यते यथा ।। २/२२॥ आचार्य विश्वनाथ ने सहित्यदर्पण में रूपक का यह लक्षण किया है - __'रूपकं रूपितारोपो विषये निरपह्नवे'
विषय (उपमेय) में रूपित (उपमान) का आरोप ही रूपक अलंकार है । अलंकारदप्पणकार ने रूपक के दो भेद किये हैं - सकल व वस्तुरूपक तथा एकैक देश रूपक । इसी को आचार्य मम्मट के शब्दों में समस्तवस्तुविषय तथा एक देशविवर्तिरूपक कहा गया है । इन दो भेदों का विवेचन करते हुए अलंकारदप्पणकार कहते हैं -
तं चिअ दुविहं जाअइ समस्य-पाअत्थ-विरअणा-जणिअं । पढवं वीअं एक्केक्क-देस-परिसंठिअं होइ ।।४२।। तदेव द्विविधं जायते समस्तपदार्थविरचनाजनितम् ।
प्रथमं द्वितीयमेकैकदेशपरिसंस्थितं भवति ।। ४२।।
वह (रूपकालंकार) दो प्रकार का होता है, पहला समस्त पदार्थरचना से उत्पन्न तथा दूसरा एकदेश में संस्थित ।
आचार्य मम्मट के 'समस्तवस्तुविषय' और 'एकदेशविवर्ति' रूपक ही अलंकारदप्पणकार के उक्त दो रूपक भेद हैं । ये दोनों भेद मम्मट ने साङ्ग रूपक के माने हैं । जब अङ्गी रूपक के साथ सभी अंगों में रूपण होता है अर्थात् सभी अंगी और अंगों में उपमान उपात्त रहता है उसे "समस्तवस्तुविषयरूपक' कहते हैं और जब साङ्गरूपक में कुछ स्थानों में उपमान शब्दोपात्त होते हैं और कुछ में अर्थबल से लभ्य होते हैं तब 'एकदेशविवर्तिरूपक' होता हैं ।
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