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अलंकारदप्पण
दृष्ट्वा परकलत्रं छन्दः पतितं (छन्दोगृहीत) मनोहरं काव्यम् । खिद्यते खलो विजृम्भते दूषयति दोषमप्रेक्षमाणः ।। ३८।।।
दूसरे की छन्द:पतित (वशंवदा) तथा मनोहर स्त्री को देखकर दुष्ट पुरुष खिन्न होते हैं जैसे छन्दोबद्ध मनोग्राही काव्य को देखकर खलजन (काव्य में) दोष न देखता हआ भी दोष निकालता है और (उसके प्रति अरुचि के कारण) अँभाई लेता है ।
यहाँ पर परकलत्र उपमान है और काव्य उपमेय । दोनों में खेदन रूप साधारण धर्म है । सदृशादि उपमावाचक के अभाव में यह श्रुतिमिलिता उपमा है। एक्कत्थ-विअप्पिओवमा जहा - (एकत्र विकल्पितोपमा यथा)
परिभमण-वइ-णिवुच्चिअ संपीडिअ-बहल रेणुणि अच्छआ । णहसु अणड वंसा इव वाआवत्ता मुणिज्जते ।।३९।। परिभ्रमण वृत्तया निवृत्तसंपीडितबहलरेणुनिचयाः वा। नभःस जारव्यंसका (जारवंशा) एव वातावर्ता मन्यन्ते ।।३९।।
वात्याचक्र (वातावर्त्त, बवण्डर) चतुर जारों की तरह लग रहे हैं, जो परिभ्रमण वृत्ति वाले तथा प्रभूत धूलिराशि को अपने में समेटे हुए हैं।
यहाँ पर परिभ्रमणवृत्तिता तथा रजोगुणवृत्तिता के कारण वात्याचक्र की चतुर जारों के साथ उपमा दी जा रही है । जार रजोगुणीस्वभाव वाले होने के कारण परिभ्रमणशील होते हैं तथा वात्याचक्र में धूलिराशि मण्डलाकार घूमती दिखाई देती है। बहुहा विअप्पिउवमा जहा -(बहुधा विकल्पितोपमा यथा)
सूरम्मि दाव जलणे व्व वोलिउ णहअलं वअरसं व । पच्छिम (दि) णिसिअरेण व तमेण कसिणीक सअलं ।। ४०।। सूर्ये तावज्जल इव ब्रूडितो नभश्चरं वायसमिव । पश्चिमनिशिचरेण इव तमसा कृष्णीकृतं सकलम् ।। ४०।।
सूर्य के (पश्चिमी) समुद्रजल में डूब जाने पर (अर्थात् अस्त हो जाने पर) पश्चिम दिशा के निशाचर के समान अन्धकार ने आकाशचारी कौवे के समान सभी को काला बना दिया है । यहाँ पर कृष्णता की वायस तथा निशाचर इन अनेक उपमानों के रूप में कल्पना किये जाने से बहुधाविकल्पितोपमा है। उवमालक्खणं समत्तं - उपमालक्षणं समाप्तम् ।
उपमालंकार का लक्षण समाप्त हुआ।
१. अभिप्रायवशौ छन्दो-अमर. २. 'आणडो अणाडो अविणयवरो त्रयोप्यमी जारार्था' देशी० १/१२
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