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अलंकारदप्पण यहाँ केवल एक अंग में ही रूपक है । आचार्य मम्मट के अनुसार यहाँ निरङ्गरूपक होगा। दीपक अलंकार
दीविज्जइ पआई एक्काए चेअ जत्थ किरिआए । मुह मज्झंतगआ ए-तं भण्णइ दीवि(व)अंतिविहं ।। ४६।। दीप्यन्ते पदानि एकयैव यत्र क्रियया । मुखमध्यान्तगतेन भण्यते दीपकं त्रिविधम् ।। ४६।।
जहाँ पर एक ही क्रिया के द्वारा अनेक पद दीपित किये जाते हैं अर्थात् एक क्रियापद अनेक कारक पदों में अन्वित होता है उसे दीपक कहते हैं। यह दीपक आदि मध्य और अन्त के भेद से तीन प्रकार का होता है। क्रिया के आदिगत, मध्यगत, अन्तगत होने पर यह तीन भेद किये जाते हैं। आचार्य भामह ने काव्यालंकार में आदिदीपक, मध्यदीपक तथा अन्तदीपक- ये दीपक के तीन भेद किये हैं।
आदिमध्यान्तविषयं त्रिधा दीपकमिष्यते । एकस्यैव व्यवस्थत्वादिति तद् भिद्यते त्रिधा ।। काव्यालंकार २/२५
आचार्य मम्मट ने इस प्रकार के तीन भेद नहीं स्वीकृत किये, इन तीनों भेदों का अन्तर्भाव उनके क्रियादीपक में ही हो जाता है । मुहदीव जहा (मुखदीपकं यथा)
भूसिज्जन्ति गअंदा मण सुहडा उ असिप्पहरेण । गइतुरएणं तुरआ सोहग्ग-गुणेण महिलाओ ।।४७।। भूष्यन्ते गजेन्द्राः मदेन सुभटास्तु असिप्रहारेण ।
गतित्वरितेन तुरगाः सौभाग्यगुणेन महिलाः ।।४७।। हाथी मद से, सुयोद्धा खड्गप्रहार से, घोड़े गति की शीघ्रता से और महिलाएँ सौभाग्य गुण से सुशोभित होते है।
यहाँ पर 'भूष्यन्ते' इस एक क्रिया का सभी कारकों (गजेन्द्राः, सुभटाः, तुरगा: और महिला:) के साथ अन्वय होने से दीपक अलंकार है और क्रियापद के आदि में रहने से मुखदीपक है। मज्झदीवअं जहा (मध्यदीपकं यथा)
सुकवीण जसो सुराण धीरिमा ईहिणरिंदाणं । केण खलिज्जइ पिसुणाण दुम्मई भीरुआण भअं ।।४८।। सुकवीनां यशः शूराणां वीरता (धीरता) ईहितं नरेन्द्राणाम् । केन स्खल्यते पिशुनानां दुर्मतिः भीरुकाणां भयम् ।।४८।।
सुकवियों का यश, शूरों की वीरता, राजाओं का अभीष्ट, पिशुनजनों की दुर्बुद्धि तथा भीरुजनों का भय किसके द्वारा निष्फल किया जा सकता है । यहाँ पर 'खलिज्जई' इस एक
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