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________________ अलंकारदप्पण सुन्दर-पअ-विण्णासं विमलालंकार व्वं रेहिअ सरीरं । सुइ-देविअं च कव्वं च पणविअ पवर वण्णड्डे ।।१।। सुन्दरपद-विन्यासां विमलालंकारशोभित-शरीराम् । श्रुतिदेवीं च काव्यं च प्रणम्य प्रवरवर्णाढ्याम् ।।१।। अलंकार का लक्षण सुन्दर पदविन्यास वाले (काव्य के भव्य शब्दविन्यास और श्रुतिदेवता सरस्वती के सुन्दरचरणन्यास) निर्दोष उपमादि अंलकारों से शोभित कलेवर वाले (श्रुतिदेवी पक्ष-निर्मल आभरणों से सुशोभित शरीर वाली) श्रेष्ठ अक्षरों से सम्पन्न (श्रुतिदेवी पक्ष-श्रेष्ठ कान्ति से सम्पन्न) काव्य को एवं वाग्देवी को प्रणाम करके सव्वाइं कव्वाइं सव्वाइं जेण होंति भविआई। तमलंकारं भणिमोऽलंकारं कु-कवि-कव्वाणं ।।२।। सर्वाणि काव्यानि अव्याणि येन भवन्ति भव्यानि । तमलंकारं भणामोऽलंकारं कुकवि-काव्यानाम् ।।२।। जिससे सभी श्रव्य काव्य सुन्दर बन जाते हैं और जो कुकवियों के काव्यों को भी अलंकृत कर देते हैं ऐसे अलंकारों को हम कहते हैं। अच्चंत-सुन्दरं-पि हु निरलंकारं जणम्मि कीरंतं । कामिणि-मुहं व कव्वं होइ पसण्णं पि विच्छाअं ।।३।। अत्यन्त-सुन्दरमपि खलु निरलङ्कारं जने क्रियमाणम् । कामिनी-मुखमिव काव्यं भवति प्रसन्नमपि विच्छायम् ।।३।। जिस प्रकार लोगों के समक्ष प्रदर्शित प्रसन्न और अत्यन्त सुन्दर भी कामिनी का मुख अलंकार रहित होने से निष्प्रभ लगता है उसी प्रकार प्रसादगुण युक्त भी काव्य लोगों के समक्ष पढ़ा जाता हुआ उपमादि अलंकार रहित होने से फीका लगता है। टिप्पणी - अलंकारदप्पण का रचयिता काव्य में अलंकारों को ही मुख्य सौन्दर्याधायक तत्त्व मानता है । उसकी दृष्टि में गुणों की अपेक्षा अलंकारों का होना अधिक महत्त्व रखता है। यह विचार राजा भोज के मत के ठीक विपरीत है जो कहते हैं - अंलकृतमपि श्रव्यं न काव्यं गुणवर्जितम् । गुणयोगस्तयोर्मुख्यो गुणालंकारयोगयोः ।। सरस्वतीकाण्ठाभरण अलंकारों की प्रधानता प्राचीन आलंकारिक आचार्य भामह को भी मान्य थी। उनकी दृष्टि में कामिनी का कान्त मुख भी अलंकारशून्य होने से अच्छा नहीं लगता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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