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________________ XX पतञ्जलि के महाभाष्य में 'द्रव्य' के स्थान पर ' यदृच्छा' शब्द आया है - चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्ति: जातिशब्दा गुणशब्दाः क्रियाशब्दा यदृच्छा शब्दाश्चतुर्थाः । अलंकारदप्पणकार के जाति, गुण, क्रिया, और द्रव्य का सन्दर्भ भामह से साम्य रखता है और इसी के अनुसार उन्होंने चार अलंकारों का कथन जाति अलंकार, द्रव्योत्तर, गुणोत्तर और क्रियोत्तर अलंकार - इस रूप में किया भामह और दण्डी का रसवदलंकार ही अलंकारदप्पणकार का 'रसिक' अलंकार है। उनका प्रेयोऽलंकार ही अलंकारदप्पण का प्रेमातिशय अलंकार है, किन्तु अलंकारदप्पण का ऊर्जा अलंकार भामह और दण्डी के ऊर्जास्वि अलंकार से भिन्न है, फिर भी इसमें समाहित अलंकार दण्डी और भामह की तरह है । उपमारूपक अलंकार भामह तथा दण्डी के समान अलंकारदप्पणकार को भी मान्य है। इसे परवर्ती आलंकारिक नहीं स्वीकार करते हैं। प्रतिवस्तूपमालंकार भी अलंकारदप्पणकार की दृष्टि से भामह और दण्डी की तरह उपमा का ही भेद है, परवर्ती आलंकारिकों ने उसकी सत्ता स्वतन्त्र अलंकार के रूप में मानी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अलंकारदप्पणकार की मान्यताएँ प्राचीन आचार्य भामह और दण्डी से ही साम्य रखती हैं। उनका यह कहना कि - अच्चतसुन्दरं पि हु निरलंकारं जणम्मि कीरंतं । (३) काव्य में अलंकारों की निर्विवादरूप से प्रधानता सूचित करता है । इससे ग्रन्थ की प्राचीनता काही संकेत मिलता है जैसा कि अलंकार सर्वस्वकार आचार्य रुय्यक का कथन है तदलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्राचां मतम् । यह तो सुनिश्चित है कि ग्रन्थ नवम शताब्दी से बाद का नहीं हो सकता क्यों कि रस को ध्वनि न मानकर अलंकार ही मानना इस बात का संकेत है। भामह और दण्डी की मान्यताओं से अलंकारदप्पणकार की समानता और परवर्ती आलंकारिकों से प्रायः असमानता इस तर्क को पुष्ट करता है कि अलंकारदप्पण ग्रन्थ लगभग सातवीं शताब्दी काही हो सकता है। ग्रन्थ की केवल कारिका बद्ध रूप में संरचना भी इसे प्राचीन बनाती है क्योंकि भामह, दण्डी, उद्गम, रुद्रट के ग्रन्थ कारिकाबद्ध ही हैं, जबकि परवर्ती आलंकारिकों की रचनाएं कारिका और वृत्ति में रचित हैं। Jain Education International प्रोफेसर सुरेशचन्द्र पाण्डे पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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