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________________ XIX पडिवत्थू एसा उअमा जा होइ समाणवत्थुरूआअ । इवमिवपिवाइरहिआ वि सरिसगुण पच्चुअहिंतो ।अलं. १४ - इसके अतिरिक्त भी आचार्य भामह का अलंकारदप्पणकार से बहुविध साम्य स्पष्ट प्रतीत होता है। संसृष्टि अलंकार भी दोनों आचार्यों को मान्य है, संकर नहीं। दण्डी ने संकट को संसृष्टि का प्रकार माना है। उत्प्रेक्षावयव अलंकार भामह तथा अलंकार दर्पणकार के अतिरिक्त अन्य आलंकारिकों को मान्य नहीं है। परवर्ती आलंकारिकों में भोज ने उत्प्रेक्षा में ही उसका अन्तर्भाव किया है उत्प्रेक्षावयवो यश्च या चोत्प्रेक्षोपमा मता। मतं चेति न भिद्यन्ते तान्युत्प्रेक्षास्वरूपतः ।। आचार्य दण्डी ने उत्प्रेक्षावयव को उत्प्रेक्षा का ही भेद माना है, स्वतन्त्र अलंकार नहीं- 'उत्प्रेक्षाभेद एवासावुत्प्रेक्षावयवोपि च'- काव्यादर्श२/३५९ इस प्रकार 'उत्प्रेक्षावयव, को स्वतन्त्र अलंकार मानना अलंकारदप्पणकार को भामह का अनुयायी ही बनाता है। हेतु, सूक्ष्म और लेश-इन तीन अलंकारों का भामह ने खण्डन किया है- "हेतुश्च सूक्ष्मो लेशश्च नालंकारतया मतः।" काव्यालंकार २/६८ अलंकारदप्पणकार ने तो उक्त तीन अलंकारों का नाम तक नहीं लिया, किन्तु आचार्य दण्डी को इनकी अलंकारता मान्य थी “हेतुश्च सूक्ष्मलेशौ च वाचामुत्तमभूषणम्” काव्यादर्श २/२३५ भामह ने उदात्त अलंकार का लक्षण नहीं दिया, किन्तु उदाहरण दिया है। दण्डी ने उदात्त का स्पष्ट लक्षण तथा उदाहरण देकर उसके दो भेद माने हैं- (काव्यादर्श २.३००) अलंकारदप्पणकार ने भी दण्डी के समान ही आशयमहत्त्व और प्रतिपादन-महत्त्व की दृष्टि से उदात्तालंकार के दो प्रकार बताए हैं- रिद्धीमहाणु भावत्तणेहिं दुविधो वि जाअइ उदत्तौ। और द्रव्योत्तर, गुणोत्तर तथा क्रियोत्तर नामक नितान्त नूतन अलंकार माने हैं। उन्हें न भामह ने माना है और न दण्डी ने। आचार्य भामह ने शब्द विभाग के प्रसंग में द्रव्य, क्रिया, जाति और गुण के भेद से शब्द के चार प्रकार बताए हैं द्रव्यक्रियाजातिगुणभेदात्ते च चतुर्विधाः । यदृच्छाशब्दमित्यन्ये डिस्थादिं प्रतिजानते ॥६/२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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