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________________ अलंकारदप्पण “न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम्' (काव्यालंकार)। परवर्ती आलंकारिक आचार्य आनन्दवर्धन की मान्यता इसके विपरीत है। उनके अनुसार जिस प्रकार अंगना का सौन्दर्याधायक तत्त्व लावण्य होता है, अलंकार नहीं, उसी प्रकार काव्य का सौन्दर्य व्यङ्गयार्थ में होता है, वाच्यार्थ में नहीं। प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्। यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु। ध्वन्यालोक १/४।। ता जाणिऊण णिउणं लक्खिज्जइ बहु-विहे अलंकारे । जेहिं अलंकारिआइं बहु मण्णिज्जति कव्वाइं ।।४।। तत् ज्ञात्वा निपुणं लक्ष्यन्ते बहुविधा अलंकाराः । यैरलङ्कृता बहु मन्यन्ते काव्यानि ।। अच्छी तरह समझकर अनेक प्रकार के उन अलंकारों के लक्षण दिये जाते हैं जिन अलकारों से अलंकृत काव्य बहुत आदर पाते हैं । अलंकारों के नाम क्रमश: उवमा-रूवअ-दीवअ-रोहाणुप्पास-अइसअ-विसेसा (सं)। अक्खेव-जाइ-वइरेअ-रसिअ-पज्जाअ भणिआउ ।।५।। उपमा रूपक-दीपक-रोधानुप्रासातिशय-विशेषा । आक्षेप-जाति-व्यतिरेक-रसिक-पर्याया भणिताः ।।५।। उपमा, रूपक, दीपक, रोध, अनुप्रास, अतिशय, विशेष, आक्षेप, जाति, व्यतिरेक, रसिक, पर्याय, कहे गए हैं । उक्त अलंकारों में 'रोध' तथा 'रसिक' ये दो नए अलंकार माने गए हैं। जहासंख-समाहिअ-विरोह-संसअ-विभावणा-भावा । अत्यन्तरणासो-अण्ण-परिअरो तह सहोत्तिअ ।।६।। (यथासंख्यसमाहितविरोधसंशयविभावनाभावाः अर्थान्तरन्यासोऽन्यपरिकरस्तथा सहोक्ति च ।।६।। यथासंख्य, समाहित, विरोध संशय, विभावना, भाव, अर्थान्तरन्यास, अन्यपरिकर और सहोक्ति। उज्जा-अवण्हवइओ पेम्माइसओ उदत्त-परिअत्ता । दव्युत्तर-किरिउत्तर-गुणुत्तरा-बहु-सिलेसा अ ।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001707
Book TitleAlankardappan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2001
Total Pages82
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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