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________________ द्रव्यानुयोग बातों को स्पष्टता से समझने में बड़ी सहायक होती हैं । अमृतचन्द्र की समयसार - टीका विशेष महत्वपूर्ण है । इसमें उन्होंने इस ग्रन्थ को संसार का सच्चा सार स्वरूप दिखलाने वाला नाटक कहा है, जिसपर से न केवल यह ग्रन्थ, किन्तु उक्त तीनों ही ग्रन्थ नाटक-त्रय के नाम से भी प्रख्यात हैं; यद्यपि रचना की दृष्टि से वे नाटक नहीं हैं । अमृतचन्द्र की समयसार टीका में आये श्लोकों का संग्रह 'समयसार कलश' के नाम से एक स्वतंत्र ग्रन्थ ही बन गया है, जिसपर शुभचन्द्र कृत टीका भी है । इन्हीं कलशों पर से हिन्दी में बनारसीदास ने अपना 'समयसार नाटक' नाम का आध्यामिक काव्य रचा हैं, जिसके विषय में उन्होंने कहा है कि नाटक के पढ़त हिया फाटक सो खुलत है' । अमृतचन्द्र की दो स्वतंत्र रचनाएं भी मिलती हैं - एक पुरुषार्थसिद्ध युपाय जो जिन प्रवचन - रहस्यकोष भी कहलाता है, और दूसरी तत्वार्थसार, जो तत्वार्थसूत्र का पद्यात्मक रूपान्तर या भाष्य है । कुछ उल्लेखों व अवतरणों पर से अनुमान होता है कि उनका कोई प्राकृत पद्यात्मक ग्रन्थ, संभवतः श्रावकाचार, भी रहा है, जो अभी तक मिला नहीं । गाथा - संख्या भी १७३, समय अमृतचन्द्र और जयसेन की टीकाओं में मूल ग्रन्थों की भिन्न-भिन्न पाई जाती है । अमृतचन्द्र अनुसार पंचास्तिकाय सार में ४१५ और प्रवचनसार में २७५ गाथाएं हैं, जब कि जयसेन के अनुसार उनकी संख्या क्रमश: १८१, ४३६ और ३११ है । ८५ उक्त तीनों ग्रन्थों पर बालचन्द्र देव कृत कन्नड टीका भी पाई जाती है, जो १२ वीं १३ वीं शताब्दी में लिखी गई है । यह जयसेन की टीका से प्रभावित है । प्रवचनसार पर प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित सरोज - भास्कर नामक टीका भी है, जो अनुमानतः १४ वीं शती की है और उक्त टीकाओं की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त है । कुंदकुंद कृत शेष रचनाओं का परिचय चरणानुयोग विषयक साहित्य के अन्तर्गत आता है । द्रव्यानुयोग विषयक संस्कृत रचनाएं संस्कृत में द्रव्यानुयोग विषयक रचनाओं का प्रारम्भ तत्वार्थ सूत्र से होता जिसके कर्ता उमास्वाति हैं । इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है, किन्तु इसकी सर्वप्रथम टीका पांचवीं शताब्दी की पाई जाती है; अतएव मूल ग्रन्थ की रचना इससे पूर्व किसी समय हुई होगी । यह एक ऐसी अद्वितीय रचना है, कि उसपर दिग० खे० दोनों सम्प्रदायों की अनेक पृथक् प्रथक् टीकाएं पाई जाती हैं । इस ग्रन्थ की रचना सूत्र रूप है और वह दस अध्यायों में विभाजित है । प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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