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जैन साहित्य मान्यतानुसार कुन्दकुन्दाचार्य ने कोइ चौरासी पाहुडों की रचना की। किन्तु वर्तमान में इनकी निम्न रचनाएं सुप्रसिद्ध हैं :- (१) समयसार (२) प्रवचनसार, (३) पंचास्तिकाय, (४) नियमसार, (५) रयणसार, (६) दशभक्ति, (७) अष्ट पाहुड और (८) बारस अणुवेक्खा। समयसार जैन अध्यात्म की एक बड़ी उत्कृष्ट रचना मानी जाती है, और उसका आदर जैनियों के सभी सम्प्रदायों में समान रूप से पाया जाता है। इसमें आत्मा के गुणधर्मों का, निश्चय और व्यवहार दृष्टियों से, विवेचन किया गया है; तथा उसकी स्वाभाविक ओर वैभाविक परिणतियों का सुन्दर निरूपण अनेक दृष्टान्तों, उदाहरणों, व उपमाओं सहित ४१५ गाथाओं में हुआ है । प्रवचनसार की २७५ गाथाएं ज्ञान, ज्ञेय व चारित्र नामक तीन श्रुतस्कंधों में विभाजित हैं। यहाँ आचार्य ने आत्मा के मूलगुण ज्ञान के स्वरूप सूक्ष्मता से विवेचन किया है, और जीव की प्रवृतियों को शुभ होने से पुण्यबंध करने वाली, अशुभ होने से पाप कर्म बंधक, तथा शुद्ध होने से कर्मबंध से मुक्त करने वाली बतलाया है । ज्ञेय तत्वाधिकार में गुण और पर्याय का भेद, तथा व्यवहारिक जीवन में होने वाले आत्म और पुद्गल संबंध का विवेचन किया है। चारित्राधिकार में श्रमणों की दीक्षा और उसकी मानसिक तथा दैहिक साधनाओं का स्वरूप समझाया है। इस प्रकार यह ग्रंथ अपने नामानुसार जैन प्रवचन का सार सिद्ध होता है । कुंदकुंद की रचनाओं में अभी तक इसी ग्रन्थ का भाषात्मक व विषयात्मक सम्पादन व अध्ययन प्राधुनिक समालोचनात्मक पद्धति से हो सका है।
पंचास्तिकाय की १८१ गाथाएं दो श्रुतस्कंधों में विभाजित हैं । प्रथम श्रुतस्कंध १११ गाथाओं में समाप्त हुआ है और इसमें ६ द्रव्यों में से पांच अस्तिकायों अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म आकाश का स्वरूप समझाया गया है। अंतिम आठ गाथाएं चूलिका रूप हैं, जिनमें सामान्य रूप से द्रव्यों
और विशेषतः काल के स्वरूप पर भी कुछ प्रकाश डाला गया है । दूसरा श्रुत. स्कंध महावीर के नमस्कार रूप मंगल से प्रारंभ हुआ है, और इसमें नौ पदार्थों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है; तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मोक्ष का मार्ग बतलाकर, उनका आचरण करने पर जोर गया है। पांच अस्तिकायों के समवाय को ही लेखक ने समय कहा है, एवं अपनी रचना को संग्रहसूत्र (गाथा १०१, १८०) कहा है।
समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर दो टीकाएं सुप्रसिद्ध हैं--एक अमृतचन्द्र सूरि कृति और दूसरी जयसेन कृत । अमृतचन्द्र का समय १३ वीं शती का पूर्वार्द्ध व जयसेन का १० वीं का अन्तिम भाग सिद्ध होता है । ये दोनों ही टीकाएं बड़ी विद्धत्तापूर्ण हैं, और मूल ग्रन्थों के मर्म को तथा जैनसिद्धान्त संबंधी
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