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________________ कुन्दकुन्द के ग्रन्थ ३ सन् ८३७) में पूरी हुई, जबकि राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष का राज्य था। इस टीका की रचना भी धवला के समान मणि-प्रवाल न्याय से बहुत कुछ प्राकृत, किन्तु यत्र-तत्र संस्कृत में हुई है। इस रचना के मूडबद्री के सिद्धान्त वसति से बाहर आने का इतिहास वही है, जो षट्खंडागम का। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ प्राकृत पाहु डों की रचना की परम्परा में कुंदकुंद आचार्य का नाम सुविख्यात है । यथार्थतः दिग० सम्प्रदाय में उन्हें जो स्थान प्राप्त है, वह दूसरे किसी ग्रन्थकार को नहीं प्राप्त हो सका। उनका नाम एक मंगल पद्य में भगवान महावीर और गौतम के पश्चात ही तीसरे स्थान पर आता है- "मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्वार्यो जैनधर्मोस्तु मंगलम् ।" दक्षिण के शिलालेखों में इन प्राचार्य का नाम कोंडकुंद पाया जाता है, जिससे उनके तामिल देशवासी होने का अनुमान किया जा सकता है। श्रुतावतार के कर्ता ने उन्हें कोंडकुंड-पुरवासी कहा है। मद्रास राज्य में गुंतकल के समीप कुन्डकुन्डी नामक ग्राम है, जहां की एक गुफा में कुछ जैन मूर्तियाँ स्थापित हैं। प्रतीत होता है कि यही कुन्दकुन्दाचार्य का मूल निवास स्थान व तपस्या-भूमि रहा होगा। आचार्य ने अपने ग्रंथों में अपना कोई परिचय नहीं दिया, केवल बारस अणुवेक्खा की एक प्रति के अंत में उसके कर्ता श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य कहे गये हैं। इसके अनुसार कवि का काल ई० पू० तीसरी चौथी शताब्दी मानना पड़ेगा। किन्तु एक तो वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष की जो आचार्य परम्परा सुसम्बद्ध और सर्वमान्य पाई जाती है, उसमें कुन्दकुन्द का कहीं नाम नहीं आता, और दूसरे भाषा की दृष्टि से उनकी रचनाएं इतनी प्राचीन सिद्ध नहीं होती। उनमें अघोष वर्गों के लोप, य-श्रुति का आगमन आदि ऐसी प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं, जो उन्हें ई० सन् से पूर्व नहीं, किन्तु उससे पश्चात् कालीन सिद्ध करती हैं। पांचवी शताब्दी में हुए आचार्य देवनंदी पूज्य पाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में कुछ गांयाएं उद्धृत की हैं, जो कुन्दकुन्द की बारस-अणु वेक्खा में भी पाई जाने से वहीं से ली हुई अनुमान की जा सकती है । बस यही कुन्दकुन्दाचार्य के काल की अंतिम सीमा कही जा सकती है। मर्करा के शक संवत् ३८८ के ताम्रपत्रों में उनके आम्नाय का नाम पाया जाता है, किन्तु अनेक प्रबल कारणों से ये ताम्रपत्र जाली सिद्ध होते हैं। अन्य शिलालेखों में इस आम्नाय का उल्लेख सातवीं पाठवीं शताब्दी से पूर्व नहीं पाया जाता। अतएव वर्तमान प्रमाणों के आधार पर निश्चयतः इतना ही कहा जा सकता है कि वे ई० की पांचवी शताब्दी के प्रारंभ व उससे पूर्व हुए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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