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जैन साहित्य
अध्याय के ३३ सूत्रों में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय के उल्लेख पूर्वक सम्यग्दर्शन की परिभाषा, सात तत्वों के नाम निर्देश, प्रमाण और नयका उल्लेख एवं मति श्रत आदि पांचज्ञानों का स्वरूप बतलाया गया है। दूसरे अध्याय में ५३ सूत्रों द्वारा जीवों के भेदोपभेद बतलाये गये हैं। तीसरे अध्याय में ३८ सूत्रों द्वारा अधोलोक और मध्यलोक का, तथा चौथे अध्याय में ४२ सूत्रों द्वारा देवलोक का वर्णन किया गया है । पाँचवें अध्याय में छह द्रव्यों का स्वरूप ४२ सूत्रों द्वारा बतलाया गया है, और इस प्रकार सात तत्वों में से प्रथम दो अर्थात् जीव और अजीव तत्त्वों का प्ररूपण समाप्त किया गया है, छठे अध्याय में २७ सूत्रों द्वारा आस्त्रव तत्व का निरूपण समाप्त किया गया है, जिसमें शुभाशुभ परिणामों द्वारा पुण्य पाप रूप कर्मास्रव का वर्णन है । सातवें अध्याय में अहिंसादि वत्तों तथा उनसे सम्बद्ध भावनाओं का ३६ सूत्रों द्वारा वर्णन किया गया है। पाठवें अध्याय के २६ सूत्रों में कर्मबन्ध के मिथ्यादर्शनादि कारण, प्रकृति स्थिति आदि विधियों, ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मभेदों और उनके उपभेदों को स्पष्ट किया गया है। नौवें अध्याय में ४७ सूत्रों द्वारा अनागत कर्मों को रोकने के उपाय रूप संवर, तथा बधे हुए कर्मों के विनाश रूप निर्जरा तत्वों को समझाया गया है। दसवें अध्याय में नौ सूत्रों द्वारा कर्मों के क्षय से उत्पन्न मोक्ष का स्वरूप समझाया गया है। इस प्रकार छोटे छोटे ३५६ सूत्रों द्वारा जैन धर्म के मूलभूत सात तत्वों का विधिवत् निरूपण इस ग्रन्थ में आ गया है, जिससे इस ग्रन्थ को समस्त जैन सिद्धान्त की कुंजी कहा जा सकता है । इसी कारण यह ग्रन्थ लोकप्रियता और सुविस्तृत प्रचार की दृष्टि से जैन साहित्य में अद्वितीय है। दिग० प रम्परा में इसकी प्रमुख टीकाए देवनंदि पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धिः (५वीं शती), अकलंक कृत तत्वार्थ राजवार्तिक (माठवीं शती) तथा विद्यानंदि कृत तत्वार्थश्लोकवार्तिक (नौवीं शती) एवं श्वे० परम्परा में स्वीपज्ञ भाष्य तथा सिद्धसेन गणि कृत टीका (आठवीं शती) हैं। इन टीकाओं के द्वारा मूल ग्रन्थ का सूत्रों द्वारा संक्षेप में वर्णित विषय खूब पल्लवित किया गया है। इनके अतिरिक्त भी इस ग्रन्थ पर छोटी बड़ी और भी अनेक टीकाएं उत्तर काल में लिखी गई हैं। तत्वार्थ सूत्र के विषय को लेकर उसके भाष्य रूप स्वतंत्र पद्यात्मक रचनाएं भी की गई हैं। इनमें अमृतचन्द्रसूरि कृत तत्वार्थसार विशेष उल्लेखनीय है ।
न्याय विषयग प्राकृत जैन साहित्य
जैन आगम सम्पत तत्वज्ञान की पुष्टि अनेक प्रकार की न्यायशैलियों में की गई है, जिन्हें स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, नयवाद आदि नामों से कहा गया है। इन
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