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जैन साहित्य है, जिनसे प्रतीत होता है कि उनके सम्मुख कोई पद्यात्मक प्राकृत व्याकरण का ग्रन्थ उपस्थित था, जो अब प्राप्त नहीं है। स्वयं षटखंडागम सूत्रों की उनके सम्मुख अनेक प्रतियाँ थी, जिनमें पाठभेद भी थे, जिनका उन्होंने अनेकस्थलों पर स्पष्ट उल्लेख किया है। कहीं कहीं सूत्रों में परस्पर विरोध देखकर टीकाकार ने सत्यासत्य का निर्णय करने में अपनी असमर्थता प्रकट की है, और स्पष्ट कह दिया है कि इनमें कौन सूत्र हैं और कोन असूत्र इसका निर्णय आगम में निपुण आचार्य करें। कहीं कहा है ---इसका निर्णय तो चतुर्दश-पूर्वधारी या केवल ज्ञानी ही कर सकते हैं; किन्तु वर्तमान काल में वे है नहीं, और उनके पास से उपदेश पाकर आए हुए भी कोई विद्वान नहीं पाये जाते, अत: सूत्रों की प्रामाणिकता नष्ट करने से डरने वाले आचार्यों को दोनों सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिये । कहीं कहीं सूत्रों पर उठाई गई शंका पर उन्होंने यहां तक कह दिया है कि इस विषय की पूछताछ गौतम गणधर से करना चाहिये; हमने तो यहाँ उनका अभिप्राय कह दिया। टीका के अनेक उल्लेखों पर से ज्ञात होता है कि सूत्रों का अध्ययन कई प्रकार से चलता था। कोई सूत्राचार्य थे, तो कोई निक्षेपाचार्य और कोई व्याख्यानाचार्य । इनसे भी ऊपर महावाचकों का पद था । कषाय-प्राभूत के प्रकाण्ड ज्ञाता आर्य मंक्षु और नागहस्ति को अनेक स्थानों पर महावाचक कहा गया है । आर्य नंदी महावाचक का भी उल्लेख आया है। सैद्धान्तिक मतभेदों के प्रसंग में टीकाकार ने अनेक स्थानों पर उत्तर प्रतिपत्ति और दक्षिण प्रतिपत्ति का उल्लेख किया है, जिनमें से वे स्वयं दक्षिण प्रतिपत्ति को स्वीकार करते थे, क्योंकि वह सरल, सुस्पष्ट और आचार्य-परम्परागत है। कुछ प्रसंगों पर उन्हें स्पष्ट आगम परम्परा प्राप्त नहीं हुई, तब उन्होंने अपना स्वयं स्पष्ट मत स्थापित किया है और यह कह दिया है कि शास्त्र प्रमाण के अभाव में उन्होंने स्वयं अपने युक्तिबल से अमुक बात सिद्ध की है । विषय चाहे दार्शनिक हो और चाहे गणित जैसा शास्त्रीय, वे उस पर पूर्ण विवेचन और स्पष्ट निर्णय किये बिना नहीं रुकते थे। इसी कारण उनकी ऐसी असाधारण प्रतिमा को देखकर ही उनके विद्वान् शिष्य आचार्य जिनसेन ने उनके विषय में कहा है कि
यस्य नैसगिकों प्रज्ञा दृष्टवा सर्वाथंगमिनीम् । जाताः सर्वज्ञ सदभावे निरारेका मनस्विनः ॥
अर्थात् उनकी स्वभाविक सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देखकर विद्वज्जन सर्वज्ञ के सद्भाव के विषय में निस्सन्देह हो जाते थे। इस टीका के आलोड़न से हमें तत्कालीन सैद्धांतिक विवेचन, वादविवाद व गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा
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