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________________ शौरसेनी जैनागप्रम । महाप्राण वर्णों के स्थान पर 'ह' आदेश । यही प्रवृत्ति महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण माना गया है, और इसका प्रादुर्भाव प्रथम शताब्दी के पश्चात् का स्वीकार किया जाता है । दण्डी के उल्लेखानुसार प्राकृत (शौरसेनी ) ने महाराष्ट्र में आने पर जो रूप धारण किया, वही उत्कृष्ट प्राकृत महाराष्ट्री कहलाई ( महाराष्ट्रायां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः काव्यादर्श) और इसी महाराष्ट्री प्राकृत में सेतुबन्धादि काव्यों की रचना हुई है । जैसा पहले कहा जा चुका है, अर्द्धमागधी आगम में भी ये महाराष्ट्री प्राकृत की प्रवृतियां प्रविष्ट हुई पाई जाती हैं। भारत के उत्तर व पश्चिम प्रदेशों में जो प्राकृत ग्रंथ लिखे गये, उनमें भी इन प्रवृत्तियों का आंशिक समावेश पाकर पाश्चात्य विद्वानों ने उनकी भाषा को 'जैन महाराष्ट्री' की संज्ञा दी है किन्तु जिन षखंडागमादि रचनानों के ऊपर परिचय दिया गया है, उनमें प्रधान रूप से शौरसेनी की ही मूल वृत्तियाँ पाई जाती हैं और महाराष्ट्री की प्रवृत्तियाँ गौण रूप से उत्तरोत्तर बढ़ती हुई दिखाई देती हैं । इस कारण इन रचनाओं की भाषा को 'जैन शौरसेनी' कहा गया है | यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब महाराष्ट्र प्रदेश और उससे उत्तर की भाषा में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रवृत्तियाँ पूर्ण या बहुल रूप से प्रविष्ट हो गई, तब महाराष्ट्र से सुदूर दक्षिण प्रदेश में लिखे गये ग्रन्थ इस प्रवृत्ति से कैसे बचे, या अपेक्षाकृत कम प्रभावित हुए ? इस प्रश्न का समाधान यही अनुमान किया जा सकता है कि जिस मुनि-सम्प्रदाय में ये ग्रन्थ लिखे गये उसका दक्षिण प्रदेश में आगमन महाराष्ट्री प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होने से पूर्व ही हो चुका था और आर्येतर भाषाओं के बीच में लेखक अपने उस प्रान्तीय भाषा के रूप का ही अभ्यास करते रहने के कारण, वे महाराष्ट्री के बढ़ते हुए प्रभाव से बचे रहे या कम प्रभावित हुए । इसी भाषा विकास क्रम का कुछ स्वरूप हमें उक्त स्तरों में दिखाई देता है । - Jain Education International षट्खडागम के टीकाकार के सम्मुख जैन सिद्धान्त विषयक विशाल साहित्य उपस्थित था । उन्होंने संतकम्मपाहुड़, कषायपाहुड, सम्मति सुत्त, तिलोयपण्णत्ति सुस्त, पंचस्थिपाहुड, तत्वार्थ सूत्र, आचारांग, वट्टकेर कृत मूलाचार, पूज्यपाद कृत सारसंग्रह, अकलंक कृत तत्वार्थ भाष्य, तत्वार्थ राजवार्तिक, जीवसमास, छेदसूत्र, कम्पवाद, दशकरणी संग्रह आदि के उल्लेख किये हैं । इनमें से अनेक ग्रन्थ तो सुविख्यात हैं, किन्तु कुछ का जैसे पूज्यपाद कृत सार - संग्रह, जीवसमास, छेदसूत्र, कम्मंप्रवाद और दशकरणी संग्रह का कोई पता नहीं चलता । इसी प्रकार उन्होंने अपने गणित संबंधी विवेचन में परिकर्म का उल्लेख किया है, तथा व्याकरणात्मक विवेचन में कुछ ऐसे सूत्र व गाथाएं उद्धृत की ७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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