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________________ ७६ - जैन साहित्य कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, शक सं०७३८ = ई. सन् ८१६ सिद्ध होता है। इस प्रशस्ति में वीरसेन ने अपने पंचस्तूप अन्वय का, विद्यागुरू एलाचार्य का, तथा दीक्षागुरु आर्यनन्दि व दादागुरु चन्द्रसेन का भी उल्लेख किया है । इन्द्रनन्दि कृत श्रु तावतार कथा के अनुसार एलाचार्य ने चित्रकूटपुर में रहकर वीरसेन को सिद्धान्त पढ़ाया था । पश्चात् वीरसेन ने वाटग्राम में जाकर अपनी यह टीका लिखी। वीरसेन की टीका का प्रमाण बहत्तर हजार श्लोक अनुमान किया जाता है। शौरसैनी आगम की भाषा धवला टीका की भाषा गद्यात्मक प्राकृत है, किन्तु यत्र तत्र संस्कृत का भी प्रयोग किया गया है। यह शैली जैन साहित्यकारों में सुप्रचलित रही है, और उसे मणि प्रवाल शैली कहा गया है । टीका में कहीं कहीं प्रमाण रूप से प्राचीन गाथाएं भी उघृत की गई हैं। इस प्रकार भाषा-शास्त्र की दृष्टि से इस ग्रन्थ में हमें प्राकृत के तीन स्तर मिलते हैं-एक सूत्रों की प्राकृत जा स्पष्टतः अधि क प्राचीन है तथा शौरसनी की विशेषताओं को लिये हुए भी कहीं कहीं अर्द्धमागधी से प्रभावित है,। शौरसैनी प्राकृत का दूसरा स्तर हमें उद्धत गाथाओं में मिलता है, और तीसरा टीका की गद्य रचना में यहां उद्धृत गाथाओं में की अनेक गोम्मटसार में भी जैसी की तैसी पाई जाती हैं; भेद यह है कि वहाँ 'शौरसैनी महाराष्ट्री की प्रवृत्तियां कुछ अधिकता से मिश्रित दिखाई देती हैं। ___यहाँ प्राकृत भाषा के ऐतिहासिक विकास सम्बन्धी कुछ बातों का स्पष्टीकरण आवश्यक प्रतीत होता है । प्राचीनतम प्राकृत साहित्य तथा प्राकृत व्याकरणों में हमें मुख्यतः तीन भाषाओं का स्वरूप, उनके विशेष लक्षणां सहित, दृष्टिगोचर होता है। मागधी, अर्द्धमागधी और शौरसैनी । मागधी और अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है। शौरसैनी का प्राचीनतम रूप हमें अशोक (ई० पू० तीसरी शती) की गिरनार शिला पर खुदी हुई चौदह धर्मलिपियों में दृष्टिगोचर होता है। यहां कारक व क्रिया के रूप में के सरलीकरण के अतिरिक्त जो संस्कृत की ध्वनियों में सरलता के लिये उत्पन्न हुए हेरफेर पाये जाते हैं, उनमें मुख्य परिवर्तन हैं : संयुक्त व्यंजनों का समीकरण या एक वर्ण का लोप; जैसे धर्म का 'धम्म' कर्म का कम्म, पश्चति का पसति, पुत्र का पुत, कल्याण का कलाण, आदि । तत्पश्चात् अश्वघोष (प्रथम शती ई०) के नाटकों में उक्त परिवर्तन के अतिरिक्त हमें अघोष वर्गों के स्थान पर उनके अनुरूप सघोष वर्गों का आदेश मिलता है; जैसे क का ग, च का ज, त का द, और थ का ध । इसके अनन्तर काल में जो प्रवृत्ति मास, कालिदास आदि के नाटकों की प्राकृतों में दिखाई देती है, वह है-मध्यवर्ती असंयुक्त वर्णों का लोप तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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