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________________ ७४ जैन साहित्य आधार से षट्खंडागम की सूत्ररूप रचना की। यह रचना उपलभ्य है, और अब सुचारु रूप से टीका व अनुवाद सहित २३ भागों में प्रकाशित हो चुकी है इसके टीकाकार वीरसेनाचार्य ने प्रारंभ में ही इस रचना के विषय का जो उद्गम बतलाया है, उससे हमें पूर्वो के विस्तार का भी कुछ परिचय प्राप्त होता है। पूर्वो में द्वितीय पूर्व का नाम आग्रायणीय था। उसके भीतर पूर्वान्त, अपरान्त आदि चौदह प्रकरण थे। इनमें पांचवे प्रकरण का नाम चयन लब्धि था, जिसके अन्तर्गत बीस पाहुड थे। इनमें चतुर्थ पाहुड का नाम कर्म-प्रकृति था। इस कमप्रकृति पाहुड के भीतर कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वार थे, जिनके विषय को लेकर षट्खंडागम के छह खंड अर्थात् जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधस्वामित्व-विचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध की रचना हुई। इसमें का कुछ अंश अर्थात् सम्यक्वोत्पत्ति नामक जीवस्थान की आठवीं चूलिका बारहवें अंग दृष्टिवाद के द्वितीय भेद सूत्रसे तथा गति-अगति नामक नवमीं चूलिका व्याख्याप्रज्ञप्ति से उत्पन्न बतलाई गई है। यही आगम दिग• सम्प्रदाय में सर्वप्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। इसकी रचना का काल ई० द्वितीय शताब्दी सिद्ध होता है। इसकी रचना ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को पूर्ण हुई थी और उस दिन जैन संघ ने श्रतपूजा का महान् उत्सव मनाया था, जिसकी परम्परानुसार श्र तपंचमी की मान्यता दिग० सम्प्रदाय में आज भी प्रचलित है। इस आगम की परंपरा में जो साहित्य निर्माण हुआ, उसे चार अनुयोगों में विभाजित किया जाता है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग। प्रथमानु योग में पुराणों, चरितों व कथाओं अर्थात् आख्यानात्मक ग्रन्थों का समावेश किया जाता है । करणानुयोग में ज्योतिष, गणित आदि विषयक ग्रन्थों का, चरणानुयोग में मुनियों व गृहस्थों द्वारा पालने योग्य नियोपनियम संबंधी आचार विषयक ग्रन्थों का, और द्रव्यानुयोग में जीव-अजीव आदि तत्वों के चिंतन से सम्बन्ध रखने वाले दार्शनिक कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी, तथा नय-निक्षेप आदि विषयक सैद्धांतिक ग्रन्थों का। __ इस धार्मिक साहित्य में प्रधानता द्रव्यानुयोग की है, और इस वर्ग की रचनाएं बहुत प्राचीन, बड़ी विशाल तथा लोकप्रिय हैं। इसमें सबसे प्रथम स्थान पूर्वोल्लिखित षट्खंडागम का ही है। इस ग्रन्थ के प्रकाश में आने का भी एक रोचक इतिहास है। इस ग्रन्थ का साहित्यकारों द्वारा प्रचुरता से उपयोग केवल ११ वी १२ वीं शताब्दी तक गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र और उनके टीकाकारों तक ही पाया जाता है। उसके पश्चात् के लेखक इन ग्रन्थों के नाम मात्र से परिचित प्रतीत होते हैं। इस ग्रन्थ की दो सम्पूर्ण और एक त्रुटित, ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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