SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शौरसेनी जैनागम चूर्णियाँ भाषा व रचना शैली की दृष्टि से अपनी विशेषता रखती हैं । वे गद्य में लिखी गई हैं, और भाषा यद्यपि प्राकृत संस्कृत मिश्रित है, फिर भी इनमें प्राकृत की प्रधानता है । आचारांग, सूत्रकृतांग, निशीथ, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प, उत्तराध्ययन आवश्यक दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार पर चूर्णियाँ पाई जाई हैं । ऐतिहासिक, सामाजिक व कथात्मक सामग्री के लिये निशीथ और आवश्यक की चूर्णियाँ बड़ी महत्वपूर्ण हैं । सामान्यरूप से चूर्णियों के कर्ता जिनदासगण महत्तर माने जाते हैं, जिनका समय ई० की छठी सातवीं शती अनुमान किया जाता है । ७३ टीere अपने नामानुसार ग्रन्थों को समझने समझाने के लिये विशेष उपयोगी हैं । ये संस्कृत में विस्तार से लिखी गई हैं, किन्तु कहीं कहीं, और विशेषतः कथाओं में प्राकृत का आश्रय लिया गया है | प्रतीत होता है कि जो कथाएं प्राकृत में प्रचलित थीं, उन्हें यहाँ जैसा का तैसा उद्धृत कर दिया है । आवश्यक, दशकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार पर हरिभद्र सूरि ( ई० सं० - ७५० ) की टीकाएं उपलभ्य हैं । इनके पश्चात् आचारांग और सूत्रकृतांग पर शीलांक आचार्य ( ई० सं० ८७६) ने टीकाएं लिखी । ११ वीं शताब्दी में वादि वेताल शान्तिसूरि द्वारा लिखित उत्तराध्ययन की शिष्यहिता टीका प्राकृत में है, और बड़ी महत्वपूर्ण है । इसी शताब्दी में उत्तराध्ययन पर देवेन्द्रगणि नेमिचन्द्र ने सुखबोधा नामक टीका लिखी, जिसके अन्तर्गत ब्रह्मदत्त अगदत्त आदि कथाएं प्राकृत कथा साहित्य के महत्वपूर्ण अंग हैं, जिनका संकलन डा० हर्मन जैकोबी ने एक पृथक् ग्रन्थ में किया था, और जो प्राकृत - कथा संग्रह के नाम से मुनि जिनविजय जी ने भी प्रकाशित कराई थीं । उत्तराध्ययन पर और भी अनेक आचार्यों ने टीकाएं लिखीं, जैसे अभयदेव, द्रोणाचार्य, मलयगिरी, मलघारी हेमचन्द्र, क्षेमकीर्ति, शांतिचंद्र आदि । टीकाओं की यह बहुलता उत्तराध्ययन के महत्व व लोकप्रियता को स्पष्टतः प्रमाणित करती है । शौरसेनी जैनागम उपर्युक्त उपलभ्य आगम साहित्य जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सुप्रचलित है, किन्तु दिग० सम्प्रदाय उसे प्रामाणिक नहीं मानता। इस मान्यतानुसार मूल आगम ग्रन्थों का क्रमशः लोप हो गया, जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है । उन आगमों का केवल आंशिक ज्ञान मुनि-परंपरा में सुरक्षित रहा । पूर्वी के एकदेश- ज्ञाता आचार्य धरसेन माने गये हैं, जिन्होंने अपना वह ज्ञान अपने पुष्पदंत और भूतबलि नामक शिष्यों को प्रदान किया और उन्होंने उस ज्ञान के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy