SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य वर्णन पाया जाता है। किन्तु इस विषय-वणन से श्रुतांग के नाम की सार्थकता का कोई पता नहीं चलता। स्थानांग, समवायांग तथा नन्दीसूत्र में जो इस श्रुतांग का विषय-परिचय दिया गया है, उससे प्रतीत होता है कि मूलतः इसमें स्वसमय और परसमय सम्मत नाना विद्याओं व मंत्रों आदि का प्रश्नोत्तर रूप से विवेचन किया गया था, किन्तु यह विषय प्रस्तुत ग्रन्थ में अब प्राप्त नहीं होता। ११ : विपाक सूत्र (विवाग सुर्य) - इस श्रुतांग में दो श्रुतस्कंध हैं, पहला दुःख-विपाक विषयक और दूसरा सुख-विपाक विषयक । प्रथम श्रुत-स्कंध दूसरे की अपेक्षा बहुत बड़ा है । प्रत्येक में दस-दस अध्ययन है, जिनमें क्रमशः जीव के कर्मानुसार दुःख और सुख रूप कर्मफलों का वर्णन किया गया है । कर्म-सिद्धान्त जैन धर्म का विशेष महत्वपूर्ण अंग है। उसके उदाहरणों के लिये यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है । यहाँ लकड़ी टेककर चलते हुए व भिक्षा मांगते हुए कहीं एक अन्धे मनुष्य का दर्शन होगा, कहीं श्वास, कफ, भगंदर, अषं, खाज, यक्ष्मा व कुष्ट आदि से पीड़ित मनुष्यों के दर्शन होंगे। नाना व्याधियों के औषधिउपचार का विवरण भी मिलता है। गर्भिणी स्त्रियों के दोहले, भ्रूण-हत्या, नरबलि, क्रूर अमानुषिक दड वेश्याओं के प्रलोभनों, नाना प्रकार के मांस संस्कारों, पकाने की विधि आदि के वर्णन भी यहाँ मिलते हैं। उनके द्वारा हमें प्राचीन काल की नाना सामाजिक विधियों, मान्यताओं एवं अन्धविश्वासों का अच्छा परिचय प्राप्त होता हैं। इस प्रकार सामाजिक अध्ययन के लिये यह श्रुतांग महत्वपूर्ण है। १२ दृष्टिवाद (विद्विवाद) - यह श्रुतांग अब नहीं मिलता । समवायांग के अनुसार इसके पांच विभाग थे-परिकर्म, सूत्र, पूर्वंगत, अनुयोग और चूलिका । इन पांचों के नाना भेद-प्रभेदों के उल्लेख पाये जाते हैं । जिन पर विचार करने से प्रतीत होता है कि परिकर्म के अन्तर्गत लिपि-विज्ञान और गणित का . विवरण था । सूत्र के अन्तर्गत छिन्न-छेद नय, अछिन्न-छेद नय, त्रिक नय, व चतुर्नय की परिपाटियों का विवरण था। छिन्न छेद व चतुर्नय परिपाटियां निर्ग्रन्थों की एवं अछिन्न छेद नय और त्रिक नय परिपाटियाँ आजीविकों की थीं। पीछे इन सबका समावेश जैन नयवाद में हो गया। दुष्टिवाद का पूर्वगत विभाग सबसे अधिक विशाल और महत्वपूर्ण रहा है। इसके अन्तर्गत उत्पाद, आग्रायणी, वीर्यप्रवाद आदि के १४ पूर्व थे जिनका परिचय ऊपर कराया जा चुका है। अनुयोग नामक दृष्टिवाद के चतुर्थ भेद के मलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग-ये दो मेद बतलाये गये हैं। प्रथम में अरहन्तों के गर्म, जन्म, तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy