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________________ अर्धमागधी जैनागम ज्ञान और निर्वाण संबंधी इतिवस्त समाविष्ट किया गया था, और दूसरे में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि अन्य महापुरुषों के चरित्र का । इसप्रकार अनुयोग को प्राचीन जैन पुराण कहा जा सकता है । दिग० जैन परम्परा में इस भेद का सामान्य नाम प्रथमानुयोग पाया जाता है । पंचम भेद चूलिका के संबंध में समवायांग में केवल यह सूचना पाई जाती है कि प्रथम चार पूर्वो की जो चूलिकाएँ गिनाई गई हैं, वे ही यहाँ समाविष्ट समझना चाहिये। किन्तु दिग० परम्परा में चूलिका के पांच भेद गिनाये गये हैं, जिनके नाम हैं - जलगत, स्थलगत, मायागत, रूपगत और आकाशगत इन नामों पर से प्रतीत होता है कि उनका विषय इन्द्रजाल और मन्त्र -तन्त्रात्मक था, जो जैन धर्म की तात्त्विक और समीक्षात्मक दृष्टि से आगे स्वभावतः अधिक काल तक नहीं टिक सका। उपांग-१२ उपयुक्त श्रुतांगों के अतिरिक्त वल्लमी वाचना द्वारा १२ उपांगों, ६ छेद सूत्रों ४ मूल सूत्रों, १० प्रकीर्णकों और २ चूलिका सूत्रों का भी संकलन किया गया था। (१) प्रथम उपांग औपपातिक में नाना विचारों, भावनाओं और साधनाओं से मरने वाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है, इसका उदाहरणों सहित व्याख्यान किया गया है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि यहाँ नगरों, चैत्यों, राजाओं व रानियों आदि के वर्णन सम्पूर्ण रूप में पाये जाते हैं, जिनका वर्णन अन्य श्रुतांगों में इसी ग्रन्थ का उल्लेख देकर छोड़ दिया जाता (२) दूसरे उपांग का नाम 'राय-पसेणियं' है, जिसका सं० रूपान्तर 'राजप्रश्नीय' किया जाता है, क्योंकि इसका मुख्य विषय राजा पएसी (प्रदेशी) द्वारा किये गये प्रश्नों का केशी मुनि द्वारा समाधान है । प्राश्चर्य नहीं जो इस ग्रन्थ का यथार्थ नायक कोशल का इतिहास-प्रसिद्ध राजा पसेंडी (सं० प्रसेनजित्) रहा हो, जिसके अनुसार ग्रन्थ के नाम का ठीक सं० रूपान्तर "राज-प्रसेनजित् सूत्र' होना चाहिये । इसके प्रथम भाग में तो सूर्याभदेव का वर्णन है, और दूसरे भाग में इस देव के पूर्व जन्म का वृत्तान्त है, जबकि सूर्याभ का जीव राजा प्रदेशी के रूप में पाश्र्वनाथ की परम्परा के मुनि केशी से मिला था, और उनसे आत्मा की सत्ता व उसके स्वरूप के संबंध में नाना प्रकार से अपने भौतिक वाद की दृष्टि से प्रश्न किये थे । अन्त में केशी मुनि के उपदेश से वह सम्यग्दृष्टि बन गया और उसी के प्रभाव से दूसरे जन्म में महासमृद्धिशाली सूर्याभदेव हुआ । यह ग्रन्थ जड़वाद और अध्यात्मवाद की प्राचीन परम्पराओं के अध्ययन के लिये तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही साहित्यिक दृष्टि से भी यह रचना सुन्दर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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