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अर्धमागधी जैनांगम
महापुरुषों के कथानक उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने घोर तपस्या कर अन्त में निर्वाण प्राप्त किया, और इसी के कारण वे अन्तकृत् कहलाये। यहां कोई कथानक अपने रूप में पूर्णता से वर्णित नहीं पाया जाता। अधिकांश वर्णन अन्यत्र के वर्णनानुसार पूरा कर लेने की सूचना मात्र करदी गई है। उदाहरणार्थ, प्रथम अध्ययन में गौतम का कथानक द्वारावती नगरी के राजा अंधक. वृष्णि की रानी धारणी देवी की सुप्तावस्था तक वर्णन कर, कह दिया गया है कि यहां स्वप्न दर्शन, पुत्र-जन्म, उसका बालकपन, कला-ग्रहण, यौवन, पाणिग्रहण, विवाह, प्रसाद और भोगों का वर्णन जिस प्रकार महाबल की कथा में अन्यत्र (भगवती में) किया गया है, उसी प्रकार यहां कर लेना चाहिये । आगे तो अध्ययन के अध्ययन केवल आख्यान के नायक या नायिका का नामोल्लेख मात्र करके शेष समस्त वर्णन अन्य आख्यान द्वारा पूरा कर लेने की सूचना देकर समाप्त कर दिये गये हैं। इस श्र तांग के नाम पर से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें उवासगदासाओ के समान मूलतः दस ही अध्याय रहे होंगे । पश्चात् पल्लवित होकर ग्रन्थ को उसका वर्तमान रूप प्राप्त हुआ।
९ : अनुत्तरोपपातिक दशा (अणुत्तरोवाइय दसाओ) - इस श्र तांग में कुछ ऐसे महापुरुषों का चरित्र वर्णित है, जिन्होंने अपनी धर्म-साधना के द्वारा मरणकर उन अनुत्तर स्वर्ग विमानों में जन्म लिया जहां से पुनः केवल एक बार ही मनुष्य योनि में आने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। यह श्र तांग तीन वर्गों में विभाजित है। प्रथम वर्ग में १० द्वितीय में १३ व तृतीय में १० अध्ययन है। किन्तु इनमें चरित्रों का उल्लेख केवल सूचना मात्र से कर दिया गया है । केवल प्रथम वर्ग में धारणीपुत्र जाली तथा तीसरे में भद्रापुत्र धन्य का चरित्र कुछ विस्तार से वर्णित है । उल्लखित ३३ अनुत्तरविमानगामी पुरुषों में से प्रथम २३ राजा श्रेणिक की धारणी, चेलना व नंदा, इन तीन रानियों से उत्पन्न कहे गये हैं । और अन्त के धन्य आदि दस काकन्दी नगरी की सार्थवाही भद्रा के पुत्र । तीसरे वर्ग के प्रथम अध्ययन में धन्य की कठोर तपस्या और उसके कारण उसके अंग प्रत्यंगों की क्षीणता का बड़ा मार्मिक और विस्तृत वर्णन किया गया है। यह वर्णन पालि ग्रंथों में बुद्ध की तप से उत्पन्न देहभीणता का स्मरण कराता है।
१० प्रश्न व्याकरण (पण्ह-वागरण)—यह श्रुतांग दो खडों में विभाजित है । प्रथम खंड में पांच आस्रवद्वारों का वर्णन है, और दूसरे में पांच संवरद्वारों का पांच आस्रवद्वारों में हिंसादि पाँच पापों का विवेचन है, और संवरद्वारों में उन्हीं के निषेध रूप अहिंसादि व्रतों का। इस प्रकार इसमें उक्त व्रतों का सुव्यवस्थित
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