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________________ जैन साहित्य धर को कुछ शंका हुई, जिसका निराकरण स्वयं भगवान् महावीर ने किया। इस कथानक के अनुसार वाणिज्य ग्राम और कोल्लाग सन्निवेश पास-पास थे। कोल्लाग सन्निवेश में ज्ञातृकुल की प्रौषधशाला थी, जहां का कोलाहल वाणिज्य ग्राम तक सुनाई पड़ता था । वैशाली के समीप जो बनिया और कोल्हुआ नामक वर्तमान ग्राम हैं, वे ही प्राचीन वाणिज्य ग्राम और कोल्लाग सनिवेश सिद्ध होते हैं। अगले चार अध्ययनों में धर्म के परिपालन में बाहर से कैसीकैसी विघ्नबाधाएँ आती हैं, इनके उदाहरण उपस्थित किये गये हैं। द्वितीय अध्ययन में एक मिथ्यादृष्टि देव ने पिशाच आदि नाना रूप धारण कर, कामदेव उपासक को अपनी साधना छोड़ देने के लिये कितना डराया धमकाया, इसका सुन्दर चित्रण किया गया है। ऐसा ही चित्रण तीसरे, चौथे और पांचवें अध्ययनों में भी पाया जाता है । छठवें अध्ययन में उपासक के सम्मुख गोसाल मंखलिपुत्र के सिद्धान्तों का एक देव के व्याख्यान द्वारा उसकी धार्मिक श्रद्धा को डिगाने का प्रयत्न किया गया है । किन्तु वह अपने श्रद्धान में दृढ़ रहता है तथा अपने प्रत्युत्तरों द्वारा प्रतिपक्षी को परास्त कर देता है। इस समाचार को जानकर महावीर ने उसकी प्रशंसा की। उक्त प्रसंग में गोसाल मंखलिपुत्र के नियतिवादका प्ररूपण किया गया है । सातवें अध्ययन में भगवान महावीर आजीवक सम्प्रदाय के उपासक सद्दालपुत्र को सम्बोधन कर अपना अनुगामी बना लेते हैं। (यहां महावीर को उनके विविध महाप्रवृत्तियों के कारण महाब्राह्मण, महागोप महासार्थवाह, महाधर्मकथिक, व महानिर्यापक उपाधियाँ दी गई हैं)। तत्पश्चात् उसके सम्मुख पूर्वोक्त प्रकार का देवी उपसर्ग उत्पन्न होता है, किन्तु वह अपने श्रद्धान में अडिग बना रहता है, और अन्त तक धर्म पालन कर स्वर्गगामी होता है। आठवें अध्ययन में उपासक को उसकी अधार्मिक व मांसलोलुपी पत्नी द्वारा धर्म-बाधा पहुंचाई जाती है । अन्त के कथानक बहुत संक्षेप में शांतिपूर्वक धर्मपालन के उदाहरण रूप कहे गये हैं। ग्रन्थ के अन्त की बारह गाथाओं में उक्त दसों कथानकों के नगर आदि के उल्लेखों द्वारा सार प्रगट कर दिया गया है। इस प्रकार यह श्रृतांग आचारांग का परिपूरक है, क्योंकि आचारांग में मुनिधर्म का और इसमें गृहस्थ धर्म का निरूपण किया गया है। आनन्द आदि महासम्पत्तिवान् गृहस्थों का जीवन कैसा था, इसका परिचय इस ग्रन्थ से भलीभांति प्राप्त होता है। -अन्तकृदशा-(अंतगडदसाओ)-इस श्रुतांग में आठ वर्ग हैं, जो क्रमशः १०, ८, १३, १०, १०, १६, १३, और १० अध्ययनों में विभाजित हैं । इनमें ऐसे महापुरुषों के कथानक उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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