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________________ जैन साहित्य अंग-प्रविष्ट व अंग-बाह्य साहित्य दिग० परम्परानुसार महावीर द्वारा उपदिष्ट साहित्य की ग्रंथ-रचना उनके शिष्यों द्वारा दो भागों में की गई -एक अंग-प्रविष्ट और दूसरा अंग-बाह्य अंग-प्रविष्ट के आचारांग आदि ठीक वे ही द्वादश ग्रन्थ थे, जिनका क्रमशः लोप माना गया है, किन्तु जिनमें से ग्यारह अंगों का श्वेताम्बर परम्परानुसार वीर निर्वाण के पश्चात् १०वीं शती में किया गया संकलन अब भी उपलभ्य है । इनका विशेष परिचय आगे कराया जायगा । अंग-बाह्य के चौदह भेद माने गये हैं, जो इस प्रकार हैं-सामायिक, चतुविशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका । यह अंग-बाह्य साहित्य भी यद्यपि दिगम्बर परम्परानुसार अपने मूलरूप में अप्राप्य हो गया है, तथापि श्वेताम्बर परम्परा में उनका सद्भाव अब भी पाया जाता है। सामायिक आदि प्रथम छह का समावेश आवश्यक सूत्रों में हो गया है, तथा कल्प व्यवहार और निशीथ सूत्रों में अन्त के कल्प, व्यवहारादि छह का अन्तर्भाव हो जाता है। दशवकालिक और उत्तराध्ययन नाम की रचनाएँ विशेष ध्यान देने योग्य हैं। इनका श्वे.आगम साहित्य में बड़ा महत्व है। यही नहीं, इन ग्रन्थों की रचना के कारण का जो उल्लेख दिग० शास्त्रों में पाया जाता है, ठीक वही उपलभ्य दशवैकालिक की रचना के सम्बन्ध में कहा जाता है । आचार्य पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका(१,२०) में लिखा है कि "आरातीय आचार्यों ने कालदोष से संक्षिप्त आयु, मति और बलशाली शिष्यों के अनुग्रहार्थ दशवकालिकादि ग्रंथों की रचना की; इन रचनाओं में उतनी ही प्रमाणता है जितनी गणधरों व श्रुतकेवलियों द्वारा रचित सूत्रों में क्योंकि वे अर्थ की दृष्टि से सूत्र ही हैं, जिस प्रकार कि क्षीरोदघि से घड़े में भरा हुआ जल क्षीरोदधि से भिन्न नहीं है।" दशवकालिक नियुक्ति व हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व में बतलाया गया है कि स्वयंभव आचार्य ने अपने पुत्र मनक को अल्पायु जान उसके अनुग्रहार्थं आगम के साररूप दशवकालिक सूत्र की रचना की। इस प्रकार इन रचनाओं के सम्बन्ध में दोनों सम्प्रदायों में मतैक्य पाया जाता है । श्वे. परम्परानुसार महावीर निर्वाण से १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र आचार्य ने जैन श्रमण संघ का सम्मेलन कराया, और वहां ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। बारहवें अंग दृष्टिवाद का उपस्थित मुनियों में से किसी को भी ज्ञान नहीं रहा था; अतएव उसका संकलन नहीं किया जा सका। इसके पश्चात् की शताब्दियों में यह श्रुत-संकलन पुनः छिन्नभिन्न हो गया। तब वीर निर्वाण के लगभग ८४० वर्ष पश्चात् आर्य स्कन्दिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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