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________________ 12 महावीर से पूर्व का साहित्य नाना कलाओं व ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विज्ञानों तथा फलित ज्योतिष, शकुन शास्त्र, व मन्त्र-तन्त्र आदि विषयों का भी समावेश कर दिया गया था। इस प्रकार ये रचनाएँ प्राचीनकाल का भारतीय ज्ञानकोष कही जाय तो अनुचित न होगा। किन्तु दुर्भाग्यवश यह पूर्व साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका । यद्यपि पाश्चात्कालीन साहित्य में इनका स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है, और उनके विषय का पूर्वोक्त प्रकार प्ररूपण भी यत्र-तत्र प्राप्त होता है, तथापि ये ग्रन्थ महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष पश्चात् क्रमशः विच्छिन्न हुए कहे जाते हैं। उक्त समस्त पूर्वो के अन्तिम ज्ञाता श्र तकेवली भद्रबाहु थे । तत्पश्चात् १८१ वर्षों में हुए बिशाखाचार्य से लेकर धर्मसेन तक अन्तिमचार पूर्वो को छोड़, शेष दश पूर्वो का ज्ञान रहा, और उसके पश्चात् पर्वो का कोई ज्ञाता आचार्य नहीं रहा । षट्खंडागम के वेदना नामक चतुर्थखण्ड के आदि में जो नमस्कारात्मक सूत्र पाये जाते हैं, उनमें दशपूर्वो के और चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनियों को अलग अलग नमस्कार किया गया है (नमो दसपुग्वियाणं, नमो चउद्दसपुग्वियाणं)। इन सूत्रों की टीका करते हुए वीर सेनाचार्य ने बतलाया है कि प्रथम दशपूर्वो का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर कुछ मुनियों को नाना महाविद्याओं की प्राप्ति से सांसारिक लोभ व मोह उत्पन्न हो जाता है, । जिससे वे आगे वीतरागतो की ओर नहीं बढ़ पाते । जो मुनि इस लोभ मोह को जीत लेता है, वही पूर्ण श्रुतज्ञानी बन पाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि अन्त के जिन पूर्वो में कलाओं, विद्याओं, मन्त्र तन्त्रों व इन्द्रजालों का प्ररूपण था, वे सर्वप्रथम ही मुनियों के संयमरक्षा की दृष्टि से निषिद्ध हो गये । शेष पूर्वो के विछिन्न हो जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जितना विषय जैन मुनियों के लिये उपयुक्त व आवश्यक था, उतना द्वादशांग के अन्य भागों में समाविष्ट कर लिया गया था, इसीलिए इन रचनाओं के पठन-पाठन में समय-शक्ति को लगाना उचित नहीं समझा गया। इसी बात की पुष्टि दिग० साहित्य की इस परम्परा से होती है कि वीर निर्वाण के लगभग सात शताब्दियों पश्चात् हए गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी आचार्य धरसेन को द्वितीय पूर्व के कुछ अधिकारों का विशेष ज्ञान था उन्होंने वही ज्ञान पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों को प्रदान किया और उन्होंने उसी ज्ञान के आधार से सत्कर्मप्राभृत अर्थात् षट्खंडागम की सूत्र रूप रचना की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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