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जैन संघ में उत्तरकालीन पंथभेद
जो पहले एक ही रहा करते थे, वे अब पृथक् पृथक् होने लगे। ये प्रवृत्तियां सातवीं आठवीं शती से पूर्व नहीं पाई जातीं। एक और प्रकार से मुनि-संघ में भेद दोनों सम्प्रदायों में उत्पन्न हुआ । जैन मुनि आदितः वर्षा ऋतु के चातुर्मास को छोड़ अन्य काल में एक स्थान पर परिमित दिनों से अधिक नहीं ठहरते थे, और सदा विहार किया करते थे। वे नगर में केवल आहार व धर्मोपदेश निमित्त ही आते थे, और शेषकाल वन, उपवन, में ही रहते थे, किन्तु धीरेधीरे पांचवीं छठवीं शताब्दी के पश्चात् कुछ साधु चैत्यालयों में स्थायी रूप से निवास करने लगे। इससे श्वेताम्बर समाज में वनवासी और चैत्यवासी मुनि सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये । दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायः उसी काल से कुछ साधु चैत्यों में रहने लगे । यह प्रवृत्ति आदितः सिद्धांत के पठन-पाठन व साहित्यस्त्रजन की सुविधा के लिये प्रारम्भ हुई प्रतीत होती है किन्तु धीरे-धीरे वह एक वर्ग की स्थायी जीवन प्रणाली बन गई, जिसके कारण नाना मंदिरों में भट्टकारकों की गद्दियां व मठ स्थापित हो गये । इस प्रकार के भट्टकारकों के आचार में कुछ शैथिल्य तथा परिग्रह अनिवार्यतः आ गया । किन्तु दूसरी ओर उससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इन भटा रक गद्दियों और मठों में विशाल शास्त्र भंडार स्थापित हो गये और वे विद्याभ्यास के सुदृढ़ केन्द्र बन गये। नौवीं दसवीं शताब्दी से आगे जो जैन साहित्य स्रजन हुआ, वह प्रायः इसी प्रकार के विद्या-केन्द्रों में हुआ पाया जाता है। इसी उपयोगिता के कारण भट्टारक गद्दियां धीरे-धीरे प्रायः सभी नगरों में स्थापित हो गई, और मंदिरों में अच्छा शास्त्र-भंडार भी रहने लगा। यहीं प्राचीन शास्त्रों की लिपियाँ प्रतिलिपियाँ होकर उनका नाना केन्द्रों में आदान-प्रदान होने लगा। यह प्रणाली ग्रन्थों के यंत्रों द्वारा मुद्रण के युग प्रारम्भ होने से पूर्व तक बराबर अविच्छिन्न बनी रही। जयपुर, जैसलमेर, ईडर, कारंजा, मूडबिद्री, कोल्हापुर आदि स्थानों पर इन शास्त्र भंडारों की परम्परा आज तक भी स्थिर है।
१५ वी, १६ वीं शती में उक्त जैन सम्प्रदायों में एक औरमहान् क्रान्ति उत्पन्न हुई । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लौकाशाह द्वारा मूर्तिपूजा विरोधी उपदेश प्रारम्भ हुआ, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी संप्रदाय की स्थापना हुई। यह सम्प्रदाय ढूढिया नाम से भी पुकारा जाता है। इस सम्प्रदाय में मूर्तिपूजा का निषेध किया गया है । वे मंदिर नहीं, किन्तु स्थानक में रहते हैं और वहां मूर्ति नहीं, आगमों की प्रतिष्ठा करते हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ४५ प्रागमों में से कोई बारह-चौदह आगमों को वे इस कारण स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उनमें मूर्ति पूजा का विधान पाया जाता है। इसी सम्प्रदाय में से १८ वीं शती में
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