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जैन धर्म का उद्गम और विकास
अन्य स्थानों पर किये गये विध्वंसों का प्रत्युत्तर दिया होगा । चालुक्य नरेश सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के काल में जैनधर्म का और भी अधिक बल बढ़ा | प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र के उपदेश से कुमारपाल ने स्वयं खुलकर जैनधर्म धारण किया और गुजरात की जैन संस्थानों को खूब समृद्ध बनाया, जिसके फलस्वरूप गुजरात प्रदेश सदा के लिए धर्मानुयायियों की संख्या एवं संस्थाओं की समृद्धि की दृष्टि से जैनधर्म का एक सुदृढ़ केन्द्र बन गया । यह महान कार्य किसी धार्मिक कट्टरता के बल पर नहीं, किन्तु नाना-धर्मों के सद्भाव व सामंजस्य बुद्धि द्वारा ही किया गया था । यही प्रणाली जैनधर्म का प्राण रही है, और हेमचन्द्राचार्य ने अपने उपदेशों एवं कार्यों द्वारा इसी पर अधिक बल दिया था । धर्म की अविछिन्न परम्परा एवं उसके अनुयायियों की समृद्धि के फलस्वरूप ई० सन् १२३० में सोम सिंहदेव के राज्यकाल में पोरवाड वंशी सेठ तेजपाल ने आबूपर्वत पर उक्त आदिनाथ मंदिर के समीप ही वह नेमिनाथ मंदिर बनवाया जो अपनी शिल्पकला में केवल उस प्रथम मंदिर से ही तुलनीय है । १२ वीं १३ वीं शताब्दी में आलू पर और भी अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ था, जिससे उस स्थान का नाम देलवाड़ा ( देवलवाड़ा) अर्थात् देवों का नगर पड़ गया । आबू के अतिरिक्त काठियावाड़ के शत्रुंजय और गिरनार तीर्थक्षेत्रों की और भी अनेक नरेशों और सेठों और परिणामतः वहां के शिखर भी अनेक सुन्दर और विशाल मंदिरों से अलंकृत हो गये । खंभात का चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर ई० सन् १९०८ में बनवाया गया था और १२६५ में उसका जीर्णोद्धार कराया गया था। वहां के लेखों से पता चलता है कि वह समय समय पर मालवा, सपादलक्ष तथा चित्रकूट के अनेक धर्मानुयायियों के विपुल दानों द्वारा समृद्ध बनाया गया था । जैन संघ में उत्तरकालीन पंथभेद
का ध्यान गया
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जैन संघ में जो भेदोपभेद, सम्प्रदाय व गण गच्छादि रूप से, समयसमय पर उत्पन्न हुए, उनका कुछ वर्णन ऊपर किया जा चुका है । किन्तु उसे जैन मान्यताओं व मुनि आचार में कोई विशेष परिवर्तन हुए हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता । केवल जो दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदाय भेद विक्रम की दूसरी शती के लगभग उत्पन्न हुआ, उसका मुनि-आचार पर क्रमशः गंभीर प्रभाव पड़ा । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में न केवल मुनियों द्वारा वस्त्र ग्रहण की मात्रा बढ़ी, किंतु धीरे-धीरे तीर्थंकरों की मूर्तियों में भी कोपीन का चिह्न लगा । तथा मूर्तियों का आंख, अंगी, मुकुट आदि द्वारा मी प्रारम्भ हो गया । इस कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर मंदिर व मूर्तियाँ
प्रदर्शित किया जाने अलंकृत किया जाना
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