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गौतम केशी-संवाद
धरों की भेंट श्रावस्तीपूर में हुई और उन दोनों में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सम्प्रदाय एक होते हुए भी क्या कारण है कि पार्श्व-सम्प्रदाय चाउज्जाम धर्म तथा वर्द्धमान का सम्प्रदाय 'पंचसिविखय' कहा गया है । उसीप्रकार पार्श्व का धर्म 'संतरोत्तर' तथा वर्द्धमान का 'अचेलक' धर्म है इस प्रकार एक-कार्यप्रवृत्त होने पर भी दोनों में विशेषता का कारण क्या है ? केशी कुमार के इस सम्बन्ध में प्रश्न करने पर, गौतम गणधर ने बतलाया कि पूर्वकाल में मनुष्य सरल किन्तु जड़ (ऋजु जड़) होते थे और पश्चिमकाल में वक्र और जड़, किन्तु मध्यकाल के लोग सरल और समझदार (ऋजु प्राज्ञ) थे । अतएव पुरातन लोगों के लिए धर्म की शोध कठिन थी और पश्चात्कालीन लोंगों को उसका अनुपालन कठिन था । किन्तु मध्यकाल के लोगों के लिए धर्म शोधने और पालने में सरल प्रतीत हुआ इसीकारण एक ओर आदि व अन्तिम तीर्थंकरों ने पंचव्रत रूप तथा मध्य के तीर्थंकरों ने उसे चातुर्याम रूप से स्थापित किया । उसीप्रकार उन्होंने बतलाया कि अचेलक या संस्तर युक्त वेष तो केवल लोगों में पहचान आदि के लिए नियत किये जाते हैं, किन्तु यथार्थतः मोक्ष के कारणभूत तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र हैं । गौतम और केशी के बीच इस वार्तालाप का परिणाम यह बतलाया गया है कि केशी ने महावीर का पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर लिया । किन्तु उनके बीच वेष के सम्बन्ध में क्या निर्णय हुआ, यह स्पष्ट नहीं बतलाया गया। अनुमानतः इस सम्बन्ध में अचेलकत्व और अल्पवस्त्रत्व का कल्प अर्थात् इच्छानुसार ग्रहण की बात स्वीकार कर ली गई, जिसके अनुसार हमें स्थविर कल्प और जिनकल्प के उल्लेख मिलते हैं । स्थविर कल्प पार्श्वपरम्परा का अल्प वस्त्र धारण रूप मान लिया गया और जिनकल्प सर्वथा अचेलक रूप महावीर की परम्परा का । किन्तु स्वभावतः एक सम्प्रदाय में ऐसा द्विविध कल्प बहुत समय तक चल सकना संभव नहीं था । बहुत काल तक इस प्रश्न का उठना नहीं रुक सकता था कि यदि वस्त्र धारण करके भी महाव्रती बना जा सकता है और निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है, तब अचेलकता की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? इसी संघर्ष के फलस्वरूप महावीर निर्वाण
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६२ वर्ष पश्चात् जंबू स्वामी का नायकत्व समाप्त होते ही संघभेद हुना प्रतीत होता है । दिगम्बर परम्परा में महावीर निर्वाण के पश्चात् पूर्वोक्त तीन केली; विष्णु आदि पांच श्रुतकेवली, विशाखाचार्य प्रादि ग्यारह दशपूर्वी, नक्षत्र आदि पांच एकादश अंगधारी, तथा सुभद्र आदि लोहार्य पर्यन्त चार एकागंधारी आचार्यों की वंशावली मिलती है । इन समस्त अट्ठाइस आचार्यों का काल ६२+१००+१८३+२२० + ११८ ६८३ वर्ष निर्दिष्ट पाया जाता है ।
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