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________________ २८ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गणभेद जैन संघ सम्बन्धी श्वेताम्बर परंपरा का प्राचीनतम उल्लेख कल्पसूत्र अन्तर्गत स्थविरावली में पाया जाता है। इसके अनुसार श्रमण भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे । इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारहों गणधारों द्वारा पढ़ाए गये श्रमणों की संख्या का भी उल्लेख है । ये ग्यारहों गणधर १३ अंग और १४ पूर्व इस समस्त गणिपिटक के धारक थे, जिसके अनुसार उनके कुल श्रमण शिष्यों की संख्या ४२०० पाई जाती है । इन ग्यारहों गणधरों में से नौ का निर्वाण महा वीर के जीवन काल में ही हो गया था केवल दो अर्थात् इन्द्रभूति गौतम और आर्य सुधर्म ही महावीर के पश्चात् जीवित रहे । यह भी कहा गया है कि 'आज जो भी श्रमण निर्ग्रन्थ बिहार करते हुए पाए जाते हैं, वे सब आर्य सुधर्मं मुनि के ही अपत्य हैं । शेष गणधरों की कोई सन्तान नही चली ।' आगे स्थविरावली में आर्य सुधर्म से लगाकर आर्य शाण्डिल्य तक तेतीस आचार्यों की गुरु-शिष्य परम्परा दी गई है | छठे आचार्य आर्य यशोभद्र के दो शिष्य भूतिविजय भद्रबहु द्वारा दो भिन्न-भिन्न शिष्य परम्पराएं चल पड़ी । आर्य सम्भूत विजय की शाखा में नौवें स्थविर प्रार्य वज्रसेन के चार शिष्यों द्वारा चार भिन्नभिन्न शाखाएँ स्थापित हुई, जिनके नाम उनके स्थापकों के नामानुसार नाइल, पोमिल, जयन्त और तावस पड़े । उसी प्रकार प्रार्य भद्रबाहु के चार शिष्यों द्वारा ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षका, पौन्ड्रवर्द्ध निका और दासीखबडिका, ये चार शाखाएँ स्थापित हुई । उसीप्रकार सातवें स्थविर आर्य स्थूलभद्र के रोहगुप्त नामक शिष्य द्वारा 'तेरासिय' शाखा एवं उत्तरबलिस्सह द्वारा उत्तर बलिस्सह नामक गण निकले, जिसकी पुन: कौशाम्बिक, सौर्वार्तिका, कोडंबाणो और चन्द्रनागरी, ये चार शाखाएं फूटीं । स्थूलभद्र के दूसरे शिष्य आर्य सुहस्ति के शिष्य रोहण द्वारा उद्दह गण की स्थापना हुई, जिससे पुनः उदु बरिज्जिका आदि चार- उपशाखाएं और नागभूत आदि छह कुल निकले । आर्य सुहस्ति के श्रीगुप्त नामक शिष्य द्वारा चारण गण और उसकी हार्यमालाकारी आदि चार शाखाएं एवं बलीय आदि सात कुल उत्पन्न हुए । आर्य सुहस्ति के यशोभद्र नामक शिष्य द्वारा उडवाडिय गण की स्थापना हुई, जिसकी पुन: चंपिज्जिया आदि चार शाखाएं और भद्रयशीय आदि तीन कुल उत्पन्न हुए । उसी प्रकार प्रार्य सुहस्ति के कार्माद्ध नामक शिष्य द्वारा वेसवाडिया गण उत्पन्न हुआ, जिसकी श्रावस्तिका आदि चार शाखाएं और गणिक आदि चार कुल स्थापित हुए । उन्हीं के अन्य शिष्य ऋषिगुप्त द्वारा माणव गण स्थापित हुआ, जिसकी कासवार्थिका गौतमायिका, वसिष्ठका और सौराष्ट्रका, ये चार शाखाएं तथा ऋषिगुप्ति आदि चार कुल स्थापित हुए । 1 Jain Education International जैन धर्म का उद्गम और विकास ― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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