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________________ जैनधर्म का उद्गम और विकास ये दोनों ही मत भ्रांत हैं । अधिकांश जैन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि विक्रम जन्म से १८ वर्ष पश्चात् अभिषिक्त हुए और ६० वर्ष तक राज्यारूढ़ रहे, एवं उनका संवत् उनकी मृत्यु से प्रारम्भ हुआ और उसी से ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण का काल है। वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ माह पश्चात् जो शक सं० का प्रारम्भ कहा गया है, उसका कारण यह है कि महावीर का निर्वाण कार्तिक की अमावस्या को हुआ और इसीलिये प्रचलित वीर निर्वाण का संवत् कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से बदलता है। इससे ठीक ५ माह पश्चात् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शक संवत् प्रारम्भ होता है। शक संवत् ७०५ में रचित जिनसेन कृत सं० हरिवंश पुराण में वर्णन है कि महावीर के निर्माण होने पर उनकी निर्वाण भूमि पावानगरी में दीपमालिका उत्सव मनाया गया और उसी समय से भारत में उक्त तिथि पर प्रतिवर्ष इस उत्सव के मनाने की प्रथा चली। इस दिन जैन लोग निर्वाणोत्सव दीपमालिका द्वारा मनाते हैं और महा वीर की पूजा का विशेष प्रायोजन करते हैं । जहाँ तक पता चलता है दीपमालिका उत्सव जो भारतवर्ष का सर्वव्यापी महोत्सव बन गया है, उसका इससे प्राचीन अन्य कोई साहित्यिक उल्लेख नहीं है। गौतम-केशी-संवाद-- महावीर निर्वाण के पश्चात् जैन संघ के नायकत्व का भार क्रमशः उनके तीन शिष्यों -गौतम, सुधर्म और जंबू ने संभाला। इनका काल क्रमश: १२, १२ व ३८ वर्ष = ६२ वर्ष पाया जाता है। यहां तक आचार्य परंपरा में कोई भेद नहीं पाया जाता इससे भी इन तीनों गणधरों की केवली संज्ञा सार्थक सिद्ध होती है। किन्तु इनके पश्चात्कालीन आचार्य परंपराएं, दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदायों में पृथक् पृथक् पाई जाती है, जिससे प्रतीत होता है कि सम्प्रदाय भेद के बीज यहीं से प्रारम्भ हो गये। इस सम्प्रदाय-भेद के कारणों की एक झलक हमें उत्तराध्ययन सूत्र के 'केसी-गोयम संवाद' नामक २३ वें अध्ययन में मिलती है। इसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय भगवान् महावीर ने अपना अचेलक या निर्गन्थ सम्प्रदाय स्थापित किया, उस समय पार्श्वनाथ का प्राचीन सम्प्रदाय प्रचलित था। हम ऊपर कह आए हैं कि स्वयं भगवान महावीर के माता-पिता उसी पार्श्व सम्प्रदाय के अनुयायी माने गये हैं, और उसी से स्वयं भगवान महावीर भी प्रभावित हुए थे। उत्तराध्ययन के उक्त प्रकरण के अनुसार, जब महावीर के सम्प्रदाय के अधिनायक गौतम थे, उस समय पार्श्व सम्प्रदाय के नायक थे केशीकुमार श्रमण । इन दोनों गण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001705
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherMadhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
Publication Year1975
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, Religion, literature, Art, & Philosophy
File Size10 MB
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