________________
जैन चित्रकला
गहराई नहीं आ सकी। रंगों का प्रयोग भी परिमित है। प्रायः भूमि लाल पकी हुई ईटों के रंग की, और आकृतियों में पीसे, सिंदूर जैसे लाल, नीले और सफेद तथा क्वचितू हरे रंग का उपयोग हुआ है। किन्तु सन् १३५० और १४५० ई० के बीच में एक शती के जो ताड़पत्रीय चित्रों के उदाहरण मिले हैं, उनमें शास्त्रीय व सौन्दर्य की दृष्टि से कुछ वैशिष्ट्य देखा जाता है। आकृति-अंकन अधिक सूक्ष्मतर व कौशल से हुआ है । प्राकृतियों में विषय की दृष्टि से तीर्थकरों के जीवन की घटनाएं भी अधिक चित्रित हुई हैं, और उनमें विवरणात्मकता लाने का प्रयत्न दिखाई देता है, तथा रंगलेप में वैचित्र्य और विशेष चटकीलापन पाया है । इसीकाल में सुवर्णरग का प्रयोग प्रथमवार द्दष्टिगोचर होता है। यह सब मुसलमानों के साथ आई हुई ईरानी चित्रकला का प्रभाव माना जाता है, जिसके बल से आगे चलकर अकबर के काल (१६ वीं शती) में वह भारतीय ईरानी चित्रशैली विकसित हुई, जो मुगलशैली के नाम से सुप्रसिद्ध हई पाई जाती हैं, इस शैली की प्रतिनिधि रचनाएं अधिकांश कल्पसूत्र की प्रतियों में पाई जाती है, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण ईडर के 'आनंद जी मंगलजी पेढ़ी' के ज्ञानभण्डार की वह प्रति है जिसमें ३४ चित्र हैं, जो महावीर के और कुछ पार्श्वनाथ व नेमिनाथ तीर्थंकरों की जीवन-घटनाओं से सम्बद्ध हैं । इसमें सुवर्ण रंग का प्रथम प्रयोग हुआ है। आगे चलकर तो ऐसी भी रचनाएं मिलती हैं जिनमें न केवल चित्रों में ही सुवर्ण रंग का प्रचुर प्रयोग हुआ है, किन्तु समस्त ग्रन्थ लेख ही सुवर्ण की स्याही से किया गया है, अथवा समस्त भूमि ही सुवर्णलिप्त की गई है, और उसपर चांदी की स्याही से लेखन किया गया है । कल्पसूत्र की आठ ताड़पत्र तथा बीस कागज की प्रतियों पर से लिए हुए ३७४ चित्रों सहित कल्पसूत्र का प्रकाशन भी हो चुका है । (पवित्र कल्पसूत्र अहमदाबाद १६५२ )। प्रोफेसर नार्मन ब्राउन ने अपने दी स्टोरी ऑफ कालक (वाशिंगटन, १९३३) नामक ग्रन्थ में ३६ चित्रों का परिचय कराया है तथा साराभाई नवाब ने अपने कालक कथा-संग्रह ( अहमदाबाद, १६५८ ) में ६ ताड़पत्र और कागज की प्रतियों परसे ८८ चित्र प्रस्तुत किये हैं। डा. मोतीचन्द ने अपने 'जैन मिनीएचर पेटिंग्स फ्राम वैस्टर्न इंडिया' (अहमदाबाद, १९४६) में २६२ चित्र प्रस्तुत किए हैं, और उनके आधार से जैन चित्रकला का अति महत्वपूर्ण आलोचनात्मक मध्ययन प्रस्तुत किया है।
कागज पर चित्र
कागज का आविष्कार चीन देश में १०५ ई० में हुआ माना जाता है । १० वी ११ वीं शती में उसका निर्माण अरब देशों में होने लगा, और वहां से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org