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वे एक वृक्ष के नीचे मृग सहित खड़े रथवाही से प्रहार ग्रहण कर रहे हैं । इस ग्रन्थ के चित्रों में डा० मोतीचन्द के मतानुसार पशु व वृक्षों का चित्रण ताड़पत्र में प्रथम बार अवतरित हुआ है, तथा इन चित्रों में पश्चिमी भारत की चित्र-शैली स्थिरता को प्राप्त हो गई है। कोणाकार रेखांकन व नासिका और ठुड्डी का चित्रण तथा परली आंख की आकृति मुख रेखा से बाहर निकली हुई यहां रूढ़िबद्ध हुई दिखायी देती है ।
जैन कला
इस चित्रशैली के नामकरण के सम्बन्ध में मतभेद है । नार्मन ब्राउन ने इसे श्वेताम्बर जैन शैली कहा है; क्योंकि उनके मतानुसार इसका प्रयोग श्वे ० जैन ग्रन्थों में हुआ है, तथा परली आंख को निकली हुई अंकित करने का कारण संभवतः उस सम्प्रदाय में प्रचलित तीर्थकर मूर्तियों में कृत्रिम आँख लगाना है । डा० कुमार स्वामी ने इसे जैनकला, तथा श्री एन० सी० मेहता ने गुजराती शैली कहा है । श्री रामकृष्णदास का मत है कि इस शैली में हमें भारतीय चित्रकला का ह्रास दिखाई देता है । अतः उसे इस काल में विकसित हुई भाषा के अनुसार अपभ्रंश शैली कहना उचित होगा । किन्तु इन सबसे शताब्दियों पूर्वं तिब्ब तीय इतिहासज्ञ तारानाथ ( १६ वीं शती ई०) ने पश्चिम भारतीय शैली का उल्लेख किया है, और डा० मोतीचन्द ने इसी नाम का औचित्य स्वीकार किया है, क्योंकि उपलब्ध प्रमाणों पर से इस शैली का उद्गम और विकास पश्चिम भारत में ही, विशेषतः गुजरात-राजपूताना प्रदेश में, हुआ सिद्ध होता है । तारानाथ के मतानुसार पश्चिमी कला - शैली मारू ( मारवाड़) के श्रृंगधर नामक कुशल चित्रकार ने प्रारम्भ की थी, और वह हर्षवर्धन (६१० से ६५० ई०) के समय में हुआ था । यह शैली क्रमशः नेपाल और काश्मीर तक पहुंच गई। इस शैली के उपलब्ध प्रमाणों से स्पष्ट है कि यदि इसकी उत्पत्ति नहीं तो विशेष पुष्टि अवश्य ही जैन परम्परा के भीतर हुई, और इसीलिए उसका जैनशैली नाम अनुचित नहीं । पीछे इस शैली को अन्य पश्चिम प्रदेश के बाहर के लोगों ने तथा जैनेतर सम्प्रदायों ने भी अपनाया तो इससे उसकी उत्पत्ति व पुष्टि पर आधारित 'पश्चिमी' व 'जैन' कला कहने में कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता । इस आधार पर श्री साराभाई नवाब ने जो इस शैली के लिये पश्चिमी जैनकला नाम सुझाया हैं वह भी सार्थक है ।
ऊपर जिन ताड़पत्रीय चित्रों का परिचय कराया गया है, उसके सामान्य लक्षरण ये हैं: - विषय की दृष्टि से वे तीर्थंकरों, देव-देवियों, मुनियों व धर्मरक्षकों की आकृतियों तक ही प्रायः सीमित हैं। संयोजन व पृष्ठभूमि की समस्याएं चित्रकार के सम्मुख नहीं उठीं । उक्त आकृतियों की मुद्राएं भी बहुत कुछ सीमित और रूढ़िगत हैं आकृति-श्रंकन रेखात्मक हैं, जिससे उनमें त्रिगुणात्मक
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