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जैन कला
भारत में आया। मुनि जिनविजय जी को जैसलमेर के जैन भंडार से ध्वन्यालोक-लोचन की उस प्रति का अन्तिम पत्र मिला है जो जिनचन्द्रसूरि के लिये लिखी गई थी, तथा जिसका लेखनकाल, जिनविजयजी के कहे अनुसार, सन् ११६० के लगभग है। कारंजा जैन भण्डार से उपासकाचार (रत्नकरंड श्रावकाचार) की प्रभाचन्द्र कृत टीका सहित कागज की प्रति का लेखनकाल वि० सं० १४१५ (ई० सन् १३५८) है। किन्तु कागज की सबसे प्राचीन चित्रित प्रति ई० १४२७ में लिखित वह कल्पसूत्र है जो लंदन की इण्डिया आफिस लायब्रेरी में सुरक्षित है। इसमें ३१ चित्र है और उसी के साथ जुड़ी हुई कालकाचार्यकथा में अन्य १३ । इस ग्रन्थ के समस्त ११३ पत्र चांदी की स्याही से काली व लाल पृष्ठभूमि पर लिखे गये हैं। कुछ पृष्ठ लाल या सादी भूमि पर सुवर्ण की स्याही से लिखित भी हैं। प्रति के हासियों पर शोभा के लिए हाथियों व हंसों की पंक्तियाँ, फूल-पत्तियाँ अथवा कमल आदि बने हुए है। लक्ष्मणगणी कृत सुपासरणाह-चरियं की एक सचित्र प्रति पाटन के श्री हेमचन्द्राचार्य जैन-ज्ञान भंडार में सम्वत् १४७६ (ई० १४२२) में पं० भावचन्द्र के शिष्य हीरानन्द मुनि द्वारा लिखित है । इसमें कुल ३७ चित्र हे जिनमें से ६ पूरे पत्रों में व शेष पत्रों के अर्द्ध व तृतीय भाग में हासियों में बने हैं। इनमें सुपावं तीर्थकर के अतिरिक्त सरस्वती, मातृस्वप्न, विवाह, समवसरण, देशना आदि के चित्र बड़े सुन्दर है । इसके पश्चात्कालीन कल्पसूत्र की अनेक सचित्र प्रतियां नाना जैन भण्डारों में पाई गई है, जिनमें विशेष उल्लेखनीय बड़ोदा के नरसिंहजी ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है । यह प्रति यवनपुर (जौनपुर, उ० प्र०) में हुसैनशाह के राज्य में वि० सं० १५२२ में हर्षिणी श्राविका के आदेश से लिखी गई थी। इसमें ८६ पृष्ठ है, और समस्त लेखन सुवर्ण-स्याही से हुआ है । इसमें आठ चित्र है, जिनमें ऋषभदेव का राज्याभिपेक, भरत-बाहुबलि युद्ध, महावीर की माता के स्वप्न, कोशा का नृत्य आदि चित्रित है । इन चित्रों में लाल भूमि पर पीले, हरे, नीले आदि रंगों के अतिरिक्त सुवर्ण का भी प्रचुर प्रयोग है । आकृतियों में पश्चिमी शैली के पूर्वोक्त लक्षण सुस्पष्ट है । स्त्रियों की मुखाकृति विशेष परिष्कृत पाई जाती है, और उनके ओष्ठ लाक्तारस से रंजित दिखाए गए है। अन्य विशेष उल्लेखनीय कल्पसूत्र की अहमदाबाद के देवसेन पाड़ा की प्रति है, जो भड़ौच के समीप गंधारबंदर के निवासी साणा
और जूडा श्रेष्ठियों के वंशजों द्वारा लिखाई गई थी। यह भी सुवर्ण स्याही से लिखी गई है । कला की दृष्टि से इसके कोई २५-२६ चित्र इस प्रकार के ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं, क्योंकि इनमें भरत नाट्य शास्त्र में वर्णित नाना नृत्य-मुद्राओं का अंकन पाया जाता है। एक चित्र में महावीर द्वारा चंडकौशिक
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