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जैन कला
सिद्ध होती है। मूडबिद्री के इस ग्रंथ की तीन प्रतियों में सबसे पीछे की प्रति का लेखन काल १११३ ई० के लगभग है। इसमें पांच ताड़पत्र सचित्र हैं। इनमें से दो ताड़पत्र तो पूरे चित्रों से भरे हैं, दो के मध्यभाग में लेख है, और दोनों तरफ कुछ चित्र, तथा एक में पत्र तीन भागों में विभाजित है, और तीनों भागों में लेख है, किन्तु दोनों छोरों पर एक-एक चक्राकृति बनी है। चक्र की परिधि में भीतर की ओर अनेक कोणाकृतियाँ और मध्यभाग में उसी प्रकार का दूसरा छोटा सा चक्र है । इन दोनों के वलय में कुछ अन्तराल से छह चौकोण आकृतियाँ बनी है। जिन दो पत्रों के मध्य में लेख और आजूबाजू चित्र है , उनमें से एक पत्र में पहले बेलबूटेदार किनारी और फिर दो-दो विविध प्रकार की सुन्दर गोलाकृतियां है। दूसरे पत्र में दाई ओर खड्गासन नग्न मूर्तियाँ हैं, जिनके सम्मुख दो स्त्रियाँ नृत्य जैसी भाव-मुद्रा में खड़ी है। इनका केशों का जूड़ा चक्राकार व पुष्पमाला युक्त है, तथा उत्तरीय दाएं कंधे के नीचे से बाएं के ऊपर फैला हुआ है। पत्र के बायीं ओर पद्मासन जिनमति प्रभावल-युक्त है। सिंहासन पर कुछ पशुओं की आकृतियां बनी है। मूर्ति के दोनों ओर दो मनुष्य-आकृतियाँ है, और उनके पार्श्व में स्वतन्त्र रूप से खड़ी हुई, और दूसरी कमलासीन हसयुक्त देवी की मूर्तियाँ है। जो दो पत्र पूर्णतः चित्रों से अलंकृत है, उनमें से एक के मध्य में पद्मासन जिनमूर्ति है, जिसके दोनों ओर एक-एक देव खड़े हैं । इस चित्र के दोनों ओर समान रूप से दो-दो पद्मासन जिन मूर्तियाँ हैं, जिनके सिर के पीछे प्रभावल, उसके दोनों ओर चमर, और ऊपर की ओर दो चक्रों की आकृतियाँ है। तत्पश्चात् दोनों ओर एक-एक चतुर्भुजी देवी की भद्रासन मूर्ति है, जिनके दाहिने हाथ में अंकुश और बाएं हाथ में कमल है । अन्य दो हाथ वरद और अभय मुद्रा में है । दोनों छोरों के चित्रों में गुरु अपनेसम्मुख हाथ जोड़े वैठे श्रावकों को धर्मोपदेश दे रहे है। उनके बीच में स्थापनाचार्य रखा है। दूसरे पत्र के मध्य भाग में पद्मासन जिन मूर्ति है, और उसके दोनों ओर सात-सात साधु नाना प्रकार के आसनों व हस्त मुद्राओं सहित बैठे हुए है। इन ताड़पत्रों की सभी प्राकृतियाँ बड़ी सजीव और कला-पूर्ण है। विशेष बात यह है कि इन चित्रों में कहीं भी परली आँख मुखरेखा से बाहर की ओर निकली हुई दिखाई नहीं देती। नासिका व ठुड्डी की आकृति भी कोणाकार नहीं है, जैसे कि हम आगे विकसित हुई पश्चिमी जैनशैली में पाते हैं।
.. उक्त चित्रों के समकालीन पश्चिम की चित्रकला के उदाहरण निशीथ-चूणि की पाटन के संघवी-पाड़ा के भण्डार में सुरक्षित ताडपत्रीय प्रति में मिलते हैं। यह प्रति उसकी प्रशस्ति अनुसार भृगुकच्छ (भड़ौंच) में सोलंकी नरेश जयसिंह
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