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जैन चित्रकला
देने वाली महिला को धर्मोपदेश दे रहे हैं । एक देवता चतुर्भुज व त्रिनेत्र दिखाई देता है, जो सम्भवतः इन्द्र है । ये सब चित्र चित्र काली भित्ति पर नाना रंगों से बनाए गये हैं। रंगों की चटक अजन्ता के चित्रों के समान है। देवों, आर्यों व मुनियों के चित्रों में नाक व ठुड्डी का अंकन कोणात्मक तथा दूसरी आंख मुखाकृति के बाहर को निकली हुई सी बनाई गई है । आगे की चित्रकला इस शैली से बहुत प्रभावित पायी जाती हैं।
श्रवणबेलगोला के जैनमठ में अनेक सुन्दर भित्ति-चित्र विद्यमान हैं। एक में पार्श्वनाथ समोसरण में विराजमान दिखाई देते हैं। नेमिनाथ की दिव्यध्वनि का चित्रण भी सुन्दरता से किया गया है । एक वृक्ष और छह पुरुषों द्वारा जैन धर्म की छह लेश्याओं को समझाया गया है, जिनके अनुसार वृक्ष के फलों को खाने के लिए कृष्णलेश्या वाला व्यक्ति सारे वृक्ष को काट डालता है, नीललेश्या वाला व्यक्ति उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं को, कपोतलेश्या वाला उसकी टहनियों को, पीतलेश्या वाला उसके कच्चे-पके फलों को और पद्मलेश्या वाला व्यक्ति वृक्ष को लेशमात्र भी हानि नहीं पहुंचाता हुआ पककर गिरे हुए फलों को चुनकर खाता है । मठ के चित्रों में ऐसे अन्य भी धार्मिक उपदेशों के दृष्टांत पाये जाते हैं । यहाँ एक ऐसा चित्र भी है, जिसमें मैसूर नरेश कष्णराज ओडयर (तृतीय) का दशहरा दरबार प्रदर्शित किया गया है।
ताड़पत्रीय चित्र- जैन मन्दिरों में मित्ति-चित्रों की कला का विकास ११ वीं शती तक विशेष रूप से पाया जाता है । तत्पश्चात् चित्रकला का आधार ताड़पत्र बना । इस काल से लेकर १४-१५ वीं शती तक के हस्तलिखित ताड़पत्र ग्रंथ जैन शास्त्र-भंडारों में सहस्त्रों की संख्या में पाये जाते हैं । चित्र बहुधा लेख के ऊपर नीचे व दायें-बाएं हाशियों पर, और कहीं पत्र के मध्य में भी बने हुए हैं । ये चित्र बहुधा शोमा के लिए, अथवा धार्मिक रुचि बढ़ाने के लिए अंकित किये गये हैं। ऐसे चित्र बहुत ही कम हैं जिनका विषय ग्रंथ से सम्बन्ध रखता हो।
____ सबसे प्राचीन चित्रित ताड़पत्र ग्रंथ दक्षिण में मैसूर राज्यान्तर्गत मूडद्रीबि तथा उत्तर में पाटन (गुजरात) के जैन भंडारों में मिले हैं । मूडबिद्री में पदवंडागम की ताडपत्रीय प्रतियां, उसके ग्रंथ व चित्र दोनों दृष्टियों से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। दिगम्बर जैन परम्परानुसार सुरक्षित साहित्य में यही रचना सबसे प्राचीन है। इसका मूल द्वितीय शती, तथा टीका ६ वीं शती में रचित
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