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जैन चित्रकला
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आज्ञा से उनके हरिनंगमेशा नामक अनुचर देव ने महावीर को गर्भरूप में देवानन्दा की कुक्षि से निकाल कर त्रिशला रानी की कुक्षि में स्थापित किया था। इस प्रकार हरिनगमेशी का सम्बन्ध बाल-रक्षा से स्थापित हुआ जान पड़ता है। इस हरिनैगमेशी की मुखाकृति प्राचीन चित्रों व प्रतिमाओं में बकरे जैसी पाई जाती है । नेमिनाथ चरित्र में कथानक हैं कि सत्यभामा की प्रद्युम्न सदृश पुत्र को प्राप्त करने की अभिलाषा को पूरा करने के लिए कृष्ण ने नैगमेश देव की आराधना की, और उसने प्रकट होकर उन्हें एक हार दिया जिसके पहनने से सत्यभामा की मनोकामना पूरी हुई। इस आख्यान से नैगमेश देव का संतानोत्पत्ति के साथ विशेष सम्बन्ध स्थापित होता है । उक्त देव व देवी की प्रायः समस्त मूर्तियां हार पहने हुए हैं, जो सम्भवतः इस कथानक के हार का प्रतीक है । डा. वासुदेवशरणजी का अनुमान है कि उपलभ्य मूर्तियों पर से ऐसा प्रतीत होता है कि संतान पालन में देव की अपेक्षा देवी की उपासना अधिक औचित्य रखती है, अतएव देव के स्थान पर देवी की कल्पना प्रारम्भ हुई । तत्पश्चात् अजामुख का परित्याग करके सुन्दर स्त्री-मुख का रूप इस देव-देवी को दिया गया, और फिर देव-देवी दोनों ही एक साथ बालकों सहित दिखलाए जाने लगे (जैन एनटी० १६३७ प्र० ३७ आदि) संभव है शिशु के पालन पोषण में बकरी के दूध के महत्व के कारण इस प्रजामुख देवता की प्रतिष्ठा हुई हो ?
कुछ मूर्तियों में, उदाहरणार्थ देवगढ़ के मन्दिरों में व चन्द्रपुर (झांसी) से प्राप्त मूर्तियों में, एक वृक्ष के आस-पास बैठे हुए पुरुष और स्त्री दिखाई देते हैं, . और वे दोनों ही एक बालक को लिए हुए हैं । पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व संचालक श्री दयाराम साहनी का मत है कि यह दृश्य भोगभूमि के युगल का
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चित्रकला के प्राचीन उल्लेख
भारतवर्ष में चित्रकला का भी बड़ा प्राचीन इतिहास हैं । इस कला के साहित्य में बहुत प्राचीन उल्लेख पाये जाते हैं, तथापि इस कला के सुन्दरतम उदाहरण हमें अजन्ता की गुप्त-कालीन बौद्ध गुफाओं में मिलते हैं । यहां यह कला जिस विकसित रूप में प्राप्त होती है, वह स्वयं बतला रही है कि उससे पूर्व भी भारतीय कलाकारों ने अनेक वैसे भित्तिचित्र दीर्घकाल तक बनाये होंगे, तभी उनको इस कला का वह कौशल और अभ्यास प्राप्त हो सका जिसका
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